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'प्रश्न अग्रज के सम्मान का नहीं है तात । अग्रज तो सदैव प्रणम्य होता है। फिर हमारे अग्रज का तो हम पर सदा स्नेह ही रहा है। उनके चरणों में झुक कर तो यह मस्तक गौरवान्वित ही होता रहा। आज भी अग्रज भरत के चरणों में हमारा मस्तक नमित ही है। उनका कोई आदेश होता तो हमारे लिए वह सादर शिरोधार्य था। किन्तु भ्राता का आदेश तुम्हारे पास है कहाँ ? यह तो असि की धार दिखाकर प्रणाम उगाहने का एक सम्राट का राजनैतिक संदेश मात्र है। चक्र के आतंक से बलात् मस्तक झुका लेने का कुटिल प्रयास, किसी भी स्वाभिमानी को कैसे प्रिय हो सकता है ?' बाहुबली ने संयत शब्दों में दूत के अभीष्ट के प्रति अपनी असहमति व्यक्त कर दी। __ दक्षिणांक अपने पद की गरिमा के अनुरूप सहनशीलता, क्षमता और शब्दकौशल से युक्त था। ऋषभदेव की सेवा में रहकर उसने अनुभव भी प्राप्त किया था। आज उसकी योग्यता की परीक्षा थी। धैर्यपूर्वक उसने स्वामी का अभिप्राय साधने का पुनः प्रयत्न किया। ____ 'एक बार पुनः विचारें महाराज! प्रणाम उगाहना ही यदि सम्राट का अभिप्रेत होता, तो सम्पूर्ण भरत क्षेत्र की जय-यात्रा करनेवाली उनकी सेना के लिए पोदनपुर दुर्गम नहीं था। वे तो कभी आपको पराया मानते ही नहीं हैं। भ्रातृ-सुलभ व्यवहार ही आपके प्रति करना चाहते हैं। परन्तु संयोगवश आपके अग्रज चक्रवर्ती भी तो हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी के निरवरोध स्वामित्व का श्रेय, उनका प्राप्तव्य है। विजय परिक्रमा के उपरान्त चक्ररत्न को आयुधशाला में स्थापित करना, उनका कर्तव्य है। वास्तव में सम्राट नहीं, वह यक्षरक्षित चक्र ही, आपके प्रणाम की अपेक्षा कर रहा है। चक्रेश के अनुशासन के प्रति सहमति की यह सामान्य प्रक्रिया है। इसमें किसी के मान-अपमान की भावना मुझे तो दिखाई नहीं देती।' ___ 'स्वामी के अभिप्राय के प्रति तुम्हारी निष्ठा सराहनीय है दूतराज, किन्तु ऐसा लगता है कि साम्राज्य की लोलुपता ने तुम्हारे स्वामी का विवेक हरण कर लिया है। वे भूल गये कि हम भी उन्हीं ऋषभदेव के पुत्र हैं। उन पूज्य चरण ने अयोध्या पर जैसी सत्ता अग्रज भरत को सौंपी थी, पोदनपुर पर वैसा ही अधिकार हमें भी प्रदान किया था। अयोध्या के विभव का भागीदार बनने की हमने तो कभी आकांक्षा नहीं की। दिग्विजय में सम्राट ने जिस विपुल ऐश्वर्य का अर्जन किया है, उसके प्रति हमें तो कोई प्रलोभन नहीं हुआ। फिर पोदनपुर के इस छोटे से भू-भाग पर दांत लगाना उन्हें कहाँ तक शोभा देता है ? क्या ऐसा करना
गोमटेश-गाथा / ७५