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१९. संघर्ष की प्रस्तावना
पोदनपुर की राजसभा में भरत के दूत दक्षिणांक का समुचित सत्कार हुआ। बाहुबली को स्वामी का पत्र सौंपकर दूत ने मौखिक रूप से भी उनकी क्षेम कुशल और दिग्विजय का बखान किया। बाहुबली ने आदरपूर्वक भरत का स्मरण करते हुए पत्र की कूट-भाषा से खिन्न होकर दूत से कहा--
'अग्रजन ने विजय उत्सव को बेला में हमें स्मरण किया है, यह हमारा अहोभाग्य है । दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते समय यदि उनकी आज्ञा प्राप्त होती तो इस विजय-यात्रा में उनकी सेवा करके हमें प्रसन्नता हो होती। नगर-प्रवेश की पूर्व सूचना पा जाते तो हम भी जन्मनगरी के द्वार पर, अपने विश्वविजेता बन्धु की अगवानी करते। वही हमारे भ्रातृ-प्रेम का प्रतीक होता। खेद है कि उस समय भ्रात को हमारा स्मरण नहीं हुआ। आज अपने स्वार्थवश ही उन्होंने हमें यह विवश आमन्त्रण भेजा है। उनका यह पत्र, किसी भी प्रकार 'अनुज के नाम अग्रज का पत्र' लगता हो नहीं है। यह तो एक सामान्य नरेश को सम्बोधित चक्रवर्ती का आदेश मात्र है।'
'महाराज ने ठीक ही समझा है। आप अग्रज की विजयोत्सव के सहभागी होकर इस अवसर पर उपस्थित हों, हमारे स्वामी का यही अभिप्राय है। चक्र के नियोग की ऐसी ही अनिवार्यता है। परन्तु महाराज, इसमें अनुचित क्या है ? क्या चक्रवर्ती हो जाने मात्र से अग्रज 'अग्रज' नहीं रह जाता? क्या आज भी स्वामी बड़े और आप छोटे नहीं है ? फिर अयोध्या चलकर स्वामी का सम्मान करने में आपको आपत्ति क्या है ?' दक्षिणांक ने तर्क से भरत के आदेश का औचित्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया।