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पूज्य पिताजी की अवज्ञा नहीं है ?' " बाहुबली के मन का संताप शब्दों में बिखरना प्रारम्भ हुआ सो बिखरता ही गया___'तुम्हें स्पष्ट समझना होता दूत, कि पोदनपुर के राज्य में किसी का कोई साझा नहीं है, और अपनी राज्य-सीमा के बाहर जाकर, किसी चक्रवर्ती की अभ्यर्थना करने की हमें आवश्यकता नहीं है। प्रणाम और सम्मान याचना करने से मिलते भी नहीं हैं। यदि चक्रवर्ती के चक्र का गत्यवरोध हो गया है तो उसे गतिमान करने के उपाय उन्हें स्वयं ढूँढ़ना चाहिए।'
वाक्य समाप्त करते-करते बाहुबली के आनन पर रोष की जो रेखा खेल गई, दूत से वह छिपी नहीं रह सकी। उसे भी अब अपने मन्तव्य का स्पष्ट उद्घाटन उचित लगा__'चक्र तो अयोध्या में प्रवेश करेगा, महाराज। इस सगून को पूरा करने के लिए जो भी करना पड़े, न चाहते हुए भी सम्राट को वह करना ही पड़ेगा। उन्होंने अपने स्नेह के उपहार और शुभकामनाओं सहित आपको आमंत्रित किया है। आपको उनकी इस सहज अपेक्षा का यदि निरादर होता है तो मुझे भय है कि चक्र की गति... ..!'
दूत का वाक्य अधूरा रहा किन्तु अपनी बेधक शक्ति के पूरे प्रभाव से उसने बाहुबली के हृदय को बेध लिया। क्षोभ और आवेग से उनका मुख तमतमा उठा। उन्होंने उसी क्षण दूत के वाक्य को पूरा किया
'चक्र की गति पोदनपुर की ओर मुड़ सकती है, यही तो कहना चाहते हो न? तब लोलुप चक्रधारी के दीन किंकर को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि बाहुबली का मस्तक अनीति के समक्ष न कभी झुका है, न कभी झुकेगा । भय और आतंक से कोई कार्य करने की शिक्षा न उसे भगवान ऋषभदेव ने दी और न अग्रज भरत ने ही कभी ऐसा सिखलाया।
'यदि आज भरत के लिए चक्र ही सब कुछ है, यदि साम्राज्य ही उनकी निष्ठा, नीति और धर्म बन गया है; तेरे जैसे अदूरदर्शी मूढ़ों का मन्तव्य ही, यदि उनका मन्त्र रह गया है, तब उनसे सामान्य व्यवहार की आशा करना ही व्यर्थ है । परिग्रह का प्रेत जिसे वशीभूत कर लेता है उसकी बुद्धि विश्राम ले लेती है। सहस्रों, उद्धत नरेशों और म्लेक्ष आतताइयों के शीश की तरह बन्धु-बन्धवों का मस्तक भी यदि तलवार दिखाकर ही झुका लेना उन्होंने निश्चित किया है, तो बाहुबली को अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए, उस अन्यायपूर्ण आकांक्षा का प्रतिरोध करने में, कोई संकोच नहीं होगा।' कहकर बाहुबली अपने आपको संयत
७६ / गोमटेश-गाथा