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भी नहीं है, प्राणके न होनेसे मृत्यु भी नहीं है; उनकी स्थिति सादि-अनन्त है अर्थात् जब वे लोकके अग्रभागपर अपने स्वरूपमें स्थित हुए, वह समय उनकी स्वरूप-स्थितिका आदि है तथा फिर वहाँसे च्युत होना नहीं है इसलिये स्वरूप- स्थिति अनन्त है; यह बात जैन सिद्धान्तमें कही गई है. ॥ ४८ ॥
काले अणादनिहणे, जोणीही भीसणे इत्थ । भमिया भमिहिंति चिरं, जीवा जिणवयणमलहंता ४९
( अणाइ निहणे ) आदि और अन्त-रहित अर्थात् अनादि-अनन्त (काले ) कालमें (जिणवयणं ) जिनेन्द्र भगवानके उपदेशरूप वचनको (अलहंता ) न पाये हुए (जीवा) जीवः (जोणी गहणंमि ) योनियोंसे क्लेशरूप ( भीसणे ) भयङ्कर ( इत्थ ) इस संसार में (चिरं ) बहुत काल तक (भमिया ) भ्रमण कर चुके और ( भमिहिंति ) भ्रमण करेंगे. भावार्थ---चौरासी लाख योनियोंके कारण दुःखदायक तथा भयङ्कर इस संसार में, जिनेन्द्र भगवान के बतलाये हुए मार्गको न पाये हुए जीव, अनादि काल से जन्ममरणके चक्कर में फँसे हुए हैं तथा अनन्त कालतक फँसे रहेंगे. ता संपइ संपत्ते, मणुअत्ते दुलहे वि सम्मत्ते । सिरिसंतिसूरिसिट्ठे, करेह भो उज्जमं धम्मे ॥ ५० ॥
(ता) इसलिये ( संपइ ) इस समय ( वुलहे ) दुर्लभ ( मणुअत्ते ) मनुजत्व - मनुष्यजन्म और ( सम्मत्ते ) सम्यक्त्व ( संपत्ते ) प्राप्त हुआ है तो (सिट्ठे ) शिष्ट सज्जन पुरुषोंसे सेवित ऐसे ( धम्मे ) धर्म ( भो ) अहोभव्यप्राणियो ! (उज्जमं) उद्यम - पुरुषार्थ (करेह ) करो, ऐसा (सिरिसंतिसूरि ) श्री शान्तिसूरि उपदेश देते हैं ॥ ५० ॥ भावार्थ - बे-जब कि संसार भयङ्कर है और चौरासी लाख योनियोंके कारण उससे
पार पाना मुश्किल है और