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भी देबूँगा, कौंन तुम्हारा वह भीतर का प्रीतम है। माता पिता की आज्ञा
और मादा जो भंग करे, ऐसी कुलांगार कन्या का मैं मुंह नहीं देखना चाहता ।...हट जाओ मेरे सामने से !"
"रुष्ट न हों, तात ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। आपकी मर्यादा मेरे सिर-आँखों पर है। आप जो भी पति मेरे लिए चुन लाएंगे, उसी का वरण कर लूँगी।" __ "अगर मैं कोई चाण्डाल, गलितकेशी, बुद्ध, क्षय-रोगी चुन लाऊँ तो ?" ____ मेरा वरण करने वही आएगा, जो मेरा नियोगी होगा ! वह फिर कोई हो, कैसा भी हो, मुझे शिरोधार्य होगा ! देह, नाम, कुल-गोत्र से परे वह अपना होगा !"
"अच्छा तो, मैना, तू देखना : मेरे इस अणि गन को लोकार ही मैं चैन लूँगा। और तभी तुझे होश आएगा।" ___ “तथास्तु, पितृदेव !"
कहकर मैनासुन्दरी आँचल माथे पर ओड़कर, प्रणिपात में नत हो गयी। पिता की चरण-रज माथे पर चढ़ा ली। फिर दृष्टि उठाकर देखा, तो महाराज पहुपाल उन्मत्त क्रोध से झपटते हुए, अपने प्रासाद की ओर जाते दिखाई पड़े।
...मैना उद्यान के रेलिंग पर खड़ी होकर, नीचे बही जा रही क्षिप्रा की लहरों में अपना प्रतिबिम्ब निहारती रह गयी |...
चम्पा के राजा श्रीपाल, जन्मजात कामकुमार और कोटिभट सुने जाते थे। अनन्य सुन्दर कामदेव-जैसा उनका रूप था। वे चरमशरीरी थे, और तद्भव मोक्षगामी कहे जाते थे। अन्तिम और उत्कृष्ट था उनका देह-वैभव । और उन अकेले की भुजाओं में, एक कोटि योद्धाओं का वल था। इसी से वे कोटिभट विख्यात थे।
रूपान्तर को द्वाभा: 103