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का तुम पर कोई अधिकार नहीं ?"
“जनक-जनेता तो आप मेरी इस देह के हैं, सो भी निमित्त मात्र से, महाराज | अपनी आत्मा की माता-पिता तो मैं स्वयं ही हूँ, और हो सकती हूँ। यह मेरा विचार नहीं, वस्तु सत्य है ।"
“तो मैं कुहारा उनकन तुम्हारी ने उसे नहीं "हाँ, मैंने जन्म लेना चाहा, ठीक तभी आप दोनों निमित्त बने उसके !"
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"हम कोरे निमित्त मात्र...? आप ही तुम जनम गयीं, आप ही अपनी पालनहार हो तुम मेरे राजमहलों के सुख-वैभव का सारभूत रस तुम्हारी हड्डी हड्डी में संचित है। तुम इस सबकी ऋणी नहीं ? ऐसी, अधम, कृतघ्ना हो तुम ?..."
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"कम कृतज्ञ नहीं हूँ, महाराज, अपने माता- पित की। इस वैभव-समृद्धि की। उपचार व्यवहार अपनी जगह पर है, वस्तु सत्य अपनी जगह पर । मैंने तो इतना ही कहा कि जन्म मैंने लेना चाहा, तो जनक-जनेता ने अपने संयोग में मुझे झेला और मैं जन्म लेकर कृतार्थ हुई, कृतज्ञ हुई, अखिल की, आप सबकी पर अन्ततः मैं ही क्यों, आप भी, और सब जन अपने जन्म-मरण के स्वामी स्वयं ही हैं। अन्य कोई नहीं !"
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"ढीठ, निर्लज्ज ! मेरे वीर्य की बूँद मुझ से विद्रोह कर रही है... ?" " आप अपने वीर्य का और अपना स्वरूप, काश जान सकते, अवन्तीनाथ !... "
"जानता हूँ, खूब जानता हूँ उद्धत लड़की 1 मैं नादान नहीं ! मैं तुम्हारा जन्म देनेवाला जनक हूँ। मेरे बिना, तेरा कहीं पता न होता ?..."
" मेरे जन्म के अन्तिम मालिक, महाराज पहुपाल हैं, तो मेरी मौत के मालिक क्यों नहीं ? जो मेरे जन्म का स्वामी है, उसे मेरे मरण का स्वामी भी होना चाहिए, तात ! क्या आप मुझे मरने से बचा सकते हैं, मेरे साथ मर सकते हैं ?"
"पिता से विवाद करने में तुम्हें लज्जा नहीं आती ? चुप रहो...! मैं
102 एक और नीलांजना