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सिद्धालय और लोकालय के बीच चुनने को तुम स्वतन्त्र होगे। लोक में ही मुक्त और दिव्य जीवन रचना चाहोगे तो अपने अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य के बल पर लोक-जीवन को आमूल रूपान्तरित कर सकोगे ! तथास्तु !"
अपनी नियति को मैं जानता था। फिर भी लोक के समक्ष तुम्हारी दिव्य ध्वनि से उसे घोषित करवाना चाहता था। घोषित तो वह हुई, पर अर्द्धज्ञानी और अज्ञानी अनुयायियों तक पहुँचते-पहुँचते, श्रुतियों की परम्परा में उसका समूचा रूप ही विकृत हो गया ।
आत्माहुति की उज्ज्वल वेदना से तपःपूत 'बालुका-प्रभा पृथ्वी' की इस नरक - शय्या पर तुम्हारी वह वाणी आज फिर से प्रत्यक्ष सुन रहा हूँ। और अपने भावी तीर्थंकर - जीवन की अपूर्व रूपरेखा मेरी आँखों के सामने उभर रही है। तुम्हारे अनुयायियों को मेरे भावी तीर्थंकरत्व से, मेरा यह स्वैच्छिक नरक - प्रवास ही अधिक प्रिय है। वे नहीं जानते कि उन्हीं के पाप धोने के लिए मैंने नरक की इस वैतरणी को अंगीकार किया है ! तुम तो जानते हो, मैं तो जनम का ही खिलाड़ी हूँ, सो तुम्हारे अनुयायियों के इस प्रिय नरक को भी खेल-खेल में भोग रहा हूँ। जन्म-जरा-मरण, रोग-शोक, वियोग-दुर्योग के तमाम दुखों को लीला में परिणत कर देना ही तो मेरी एकमात्र अस्मिता और नियति है। सो वही निरन्तर करता रहता हूँ। मेरी वंशी तो अभी भी अनाहल बज रही है। लोक में मेरे गोप- सखा और मेरी गोपियों अभी भी महाभाव में तन्मय होकर मेरी प्रतीक्षा में हैं। राधा की बात मैंने तुम्हें कभी नहीं बतायी, नेमी, पर तुमसे मेरा क्या छुपा है। जब हम साथ थे, तो मैं प्रायः अपनी एकान्तिनी प्रिया राधा को तुम्हारी आँखों में मुसकराते देख लेता था, और राधा की आँखों में मुझे तुम्हारी निष्काम चितवन झाँकती दिखाई पड़ती थी। रुक्मिणी और सत्यभामा ने तुम्हें न भी पहचाना हो, पर राधा तुम्हें खूब पहचानती थी क्योंकि उसके हृदय के पद्मासन पर बैठकर, तुम्हीं मुझे ऐसा अटूट और सर्वस्वत्यागी निष्काम प्रेम दे रहे थे। अब लोक की मिथ्या मर्यादाओं में बँधी सत्यभामाओं ने
96 : एक और नीलांजना