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हैं। तुम लोक-प्रतिपालक महाविष्णु हो ! सम्वकुदर्शी जीवनमुक्त कृष्ण चिरकाल लोक में विलास करता हुआ, अपनी परमेश्वरी रासलीला और कर्मलीला से, अद्यावधि लोक के हृदय - साम्राज्य पर राज्य करेगा। योगीश्वर कृष्ण और तीर्थंकर नेमिनाथ एक ही परम सत्ता के दो अनैकान्तिक पहलू. हैं। तीर्थंकर स्थिति का अधीश्वर हैं, नारायण वासुदेव कृष्ण गति प्रगति का स्वामी है ।"
लोक की जानकारी के लिए, जानते हुए भी अनजान बनकर मैंने
पूछा :
" और कृष्ण का भविष्य,
प्रभु ?"
"तुम कालाधीन नहीं, कालाबाधित हो, कृष्ण ! विश्व-मंगल की आवश्यकतानुसार तुम स्वयं अपने भविष्य के विधाता हो। अपने स्वायत्त शासन से अब तुम लोक का पाप प्रक्षालन करने के लिए नरक यात्रा करोगे । वासुदेव अपनो नियति से ही कर्मयोगी होता है, जनमन-रंजन होता है। लोकजन के बीच ठीक मानवजन की तरह रहकर ही, वह मनुष्य के सुख-दुखों और कष्टभोगों का सहयोगी होता है। उसके रूप में नारायण नर-लीला करते हैं । वह नरकों तक में स्वयं निवास कर, अज्ञानी आत्माओं के नारकीय कष्ट क्लेशों का साक्षी और सहभोगी होकर रहता है। नहीं तो नरकों के उस घोर पापान्धकार में ज्ञान की जोत कौन उजाले ! सो इस बार तीसरी पृथ्वी 'बालुका-प्रभा' में, तुम अपनी नाग शय्या बिछाओगे, लीला-पुरुषोत्तम कृष्ण !"
" और उसके बाद... "
"उसके बाद, इसी भरत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी में, पुण्ड्र देश के शतद्वार जनपद में अनम नामक अर्हतु तीर्थंकर के रूप में अवतरित होओगे ?"
"भगवन्, आपके साथ सिद्धालय में आ बैठने के लिए ?..." "सुनो कृष्ण, वह रहस्य खोलने का समय अभी नहीं आया। इतना ही कहता हूँ कि अर्हत् केवली अपनी इच्छा का स्वामी होता है। सो
बासुदेव कृष्ण का पत्र : तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम : 93