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प्रजा के सेवक बनाने आया था। सो स्वयं सिंहासन पर कैसे चढ़ सकता था ? द्वारिका के सिंहासन पर मैंने कभी पैर तक नहीं रखा। उसकी देवदुर्लभ रत्नप्रभा धर्मचक्रेश्वर तीर्थंकर की प्रतीक्षा में थी ।
... नियत मुहूर्त में, लोकसूर्य अरिहन्त होकर तीर्थंकर नेमिनाथ गिरनार से उतर आये। मैंने उस दिन द्वारिका में राज्याभिषेक का महोत्सव रचाया। मैंने हरिवंशियों के आपूपिन, शरणान्त-उल्लभ जमिन को तुरे समवसरण (धर्म-सभा) में परिणत कर दिया |... गन्धकुटी के कमलासन पर, अन्तरिक्ष में अघर विराजमान अर्हतु अरिष्टनेमि की दिव्यध्वनि जब लोक में प्रवाहित हुई, तो तमाम जड़-जंगम सृष्टि धर्म से आप्लावित हो उठी । आयावर्त के बड़े-बड़े सिंहासनधर तुम्हारे चरणों में प्रव्रजित होकर, तुम्हारी धर्म-देशना के अनुशास्ता हो गये । प्रद्युम्न जैसा मेरा प्रतापी कामकुमार पौत्र, यदुकुल का वह सलौना भुवनमोहन राजपुत्र, मुण्डित भिक्षु होकर, तुम्हारे आत्मधर्म का संवाहक हो गया। उसके अनुसरण में साम्य आदि सहस्रों यदुवंशी राजपुत्र जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर दिगम्बर विचरने लगे। रत्निम फूल- शय्याओं में बिलसनेवाली यदुवंश की अनेक शिरीष कोमला राजकन्याएँ और राजवधुएँ तुम्हारी शरणागता सतियों हो गयीं, और उन्होंने हँसते-हँसते कंकड़-काँटों की शय्याएँ अंगीकार कर लीं। स्वयं मेरी पट्टमहिपी पद्मावती मेरे कौस्तुभ मण्डित वक्ष का त्याग कर तुम्हारी चरण धूलि हो रही । मैंने सर्वत्र घोषणा करवा दीं कि जो भी कोई स्त्री-पुरुष अभिनिष्क्रमण कर तीथंकर नेमिनाथ के मोक्षमार्ग में प्रव्रजित होना चाहें, वे खुशी-खुशी जाएं, उनके परिवार का भार वासुदेव कृष्ण वहन करेगा।
.... अपनी नियति मैं जानता था, फिर भी तुम्हारे मुँह से वह सुनना और जगत् को सुनवाना चाहता था। सो मानुष भाव में आकर मन-ही-मन मैंने प्रश्न किया: “प्रभु, क्या मैं प्रव्रजित न हो सकूंगा, मैं जघन्य ही रहूँगा ?"
तत्काल तुम बोले कैवल्य-सूर्य नेमिनाथ :
"वासुदेव कृष्ण प्रव्रज्या से परे है। जगदीश्वर के लिए संन्चास अनावश्यक
4: एक और नीलांजना