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जन्म लेना पसन्द किया राजांगन में खेलना मुझे मंजूर न हुआ, मैं ब्रज के यमुना-तटों में अहीर गोपों और गोपियों का सखा बनकर, अपनी प्रज्ञाओं के साथ पला और खेला। दुर्जेय अत्याचारी मामा कंस का वध करके भी, मैं मथुरा की राजगद्दी पर नहीं बैठा। मैंने सिंहासन महाराज उग्रसेन को सौंप दिया। जरासन्ध और कालयवन का संहार करके भी, मैंने उनके सिंहासनों पर अधिकार नहीं किया। उनके पुत्रों को धर्म-मन्त्र देकर उन्हें सिंहासनासीन कर दिया। हम यादव तो परम्परा से ही प्रजातान्त्रिक थे। अपने कुल की गौरवशाली परम्परा के अनुरूप ही मैं केवल वृष्णि-संघ का अधिपति और नेता होकर रहा। सत्ता के लोभ से नहीं, सेवा भाव से । नियोग से ही वासुदेव और त्रिखण्ड पृथ्वी का चक्रवर्ती अधीश्वर होकर जनपा था। सो पृथ्वी का केवल शरणागत वत्सल नेता और लोक प्रतिपालक होकर रहा । देवनगरी द्वारिका के राज्यैश्वर्य में विलास करने की मुझे फुरसत ही कब मिली ? मदोन्मत्त राजसत्ताओं को समाप्त करके, पृथ्वी पर धर्मराज्य की स्थापना करने के लिए मेरा जन्म हुआ था। अपनी उसी नियति को सिद्ध करने के लिए, आसेतुहिमाचल आर्यावर्त में मैं आजीवन दौड़ता फिरा | हवाओं पर आरोहण करते रथों के विद्युतवेगी अश्वों की बलगाओं पर ही मेरा सारा जीवन बीता ।
आर्यावर्त के अधःपतन के मूल कौरवों का विध्वंस करवाने के लिए, और धर्मजात पाण्डवों का धर्मराज्य पृथ्वी पर लाने के लिए मैंने कुरुक्षेत्र में निःशस्त्र और अयुद्धयमान रहकर, पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन के रथ का सारथ्य किया। और एक सारथी के रूप में, मैंने ठीक रणांगन के मोर्चे पर, आत्मधर्म और लोकधर्म की संयोजक गीता उच्चरित की । केवल अपने इंगितों पर, मात्र अठारह दिन में, दुर्दण्ड कौरवों की माण्डलिक, भारतवर्ष की अनाचारी राजसत्ताओं का, मैंने पाण्डवों द्वारा संहार करवा दिया। चाहता तो हस्तिनापुर के राजसिंहासन को मैं अपना चरण दास बनाकर रख सकता था। पर मैं त्रिखण्डाधीश चक्रवर्ती मानमत्त राजभोग के लिए नहीं हुआ था। मैं राज्यत्व का मूलोच्छेद करके तमाम सिंहासनधरों को
वासुदेव कृष्ण का पत्र तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम : 93