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ही है। अपना-पराया सब मेरे लिए केवल खेल है।...मी को खोकर तुम पछताओगी, सत्या !"
"आपकी लीला से मैं हारी, देवता, पर अपने इस भाई से सावधान रहिए : वह तुम्हारे अर्द्ध-चक्री सिंहासन का प्रतिद्वन्द्वी है ! तुम्हारी चक्रवर्ती सत्ता का वह प्रतिस्पर्धी है।" मुझे जोरों से हँसी आ गयी। मैंने कहा :
"सनो सत्या, नेमी को पहचाननेवाली नारी अभी इस पृथ्वी पर या तो जनमी नहीं, और जनमी हो तो उसको मुझे खोज लाना होगा 1 तीर्थंकर की नियोगिनी को वासुदेव ही पहचान सकता है। और देखो, सत्या, हम दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी और प्रतिस्पर्धी नहीं, पूरक हैं। अरिष्टनेमि की नियति को कंवल में जानता हूँ। उसके सिद्ध होने का समय आ गया है। तुम्हें और जगत् को अब मैं दिखाऊँगा कि नेमिकुमार कौन है ?"
रसेश्वर कृष्ण की निगाह से राजुल ओझल न रह सकी। तीर्थंकर की आत्मेश्वरी को विपल मात्र में मैंने पहचाल लिया ...तुम तो अब सदा के लिए चुप हो गये थे, नेमी । तुम तो अन्तर्मुख वीतराग भाव से केवल होनी के द्रष्टा हो रहे। किन्तु लीला-पुरुष कृष्ण लोक में तुम्हारी नियति का विधाता बनकर खेलने लगा। 'निमत्तमानं भव सव्यसाचिन् !' का उद्गाता मैं स्वयं महासत्ता की पारमेश्वरी इच्छा का निमित्त बनकर प्रकट हुआ। मैंने संकल्प किया कि अपने भीतर बैठे परमहंस स्वरूप को, तुम्हारे रूप में जगत् के समक्ष साकार करूँगा। मैं अर्हत केवली अरिष्टनेमि के यथासमय अवतरण का आयोजन करूँगा। ____...मैंने जिहा-लोलुप हो गये यादवों की हिंसकता का परदा फाश करने की चाल चली। राजुल को ब्याहने के लिए मैं तुम्हारी बारात का नेतृत्व करता हुआ, मथुरा के राजपथ पर जा चढ़ा। बारातियों के भोज के लिए
वासुदेव कृष्ण का पत्र : तीर्थकर नेमिनाथ के नाम : 91