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मैंने मुसकराकर कहा :
"सत्या, तुम नेमी को नहीं पहचानतीं। मुझसे अधिक मेरे उस भाई को कोई नहीं जानता।...यह बताओ, आज तुम उससे ऐसी नाराज क्यों हो गयी हो : देखता हूँ, कहीं उसने तुम्हारे मर्म पर आघात किया है...!"
सत्या झल्लायो :
"आपको तो हर बात में बिनोद सूझता है ! कान खोलकर सुनो, तुम्हारे इस भोले-भाले नेमी ने आज मुझसे प्रिया को तरह कीड़ा करने की चेष्टा की। मैंने टोका, तो ढीठ होकर बोला-क्या तुम मेरी प्रिया नहीं ? फिर मुझसे बोला कि-मेरी धोती धो दो...मेरे सहने की पराकाष्टा हो गयी। मैंने उसके बाहुबल्ल को ललकारा, तो विना तुम्हारी आज्ञा के तुम्हारी आयुधशाला में जाकर, तुम्हारी होड़ में उसने तुम्हारा शार्टी धनुष चढ़ा दिया...! समझ लो अच्छी तरह, वह तुम्हारी सत्ता और पौरुष, दोनों को चुनौती दे रहा है !..." ___ मुझे इस कथा में बहुत रस आया। मैं सीधे सत्या के मर्म को बेधता-सा बोला : ___ "अरे सत्या, यह तो शुभ संवाद है। तुमने मेरे इस मौनी-मुनि भाई के विरागी हृदय में राग जगा दिया। यह तो तुम्हारी विजय हुई। और प्रिया, उसने तुम्हें सच ही तो कहा है। सच्ची बात बताओ मन की, क्या तुम उसकी प्रिया नहीं होना चाहती ? क्या इसीलिए तुमने उसे शाई धनुष चढ़ाने की चुनौती नहीं दी ? क्या इसीलिए तुमने उसके बाहुबल को नहीं ललकारा ?" ___ सत्या पहले तो लज्जा से भर रही, फिर घायल सिंहनी-सी उछलकर बोली : __"आपको कुछ होश भी है आप क्या बोल रहे हैं ? हर समय विनोद अच्छा नहीं लगता, स्वामी !"
"तुम तो जानती हो हत्या, मेरे लिए तो यह सारा संसार लीला-विनोद
90 : एक और नीलांजना