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तुम अविचल, तटस्थ रहे। फिर मुसकराकर सत्यभामा को अपनी भींगी धोती दिखाकर बोले
"भाभी, इसे धोकर निचोड़ दो !"
मन में तो सत्या को यह अच्छा लगा; फिर भी अपने मान की धार को तेज कर वह बोली :
" नेमी, तुम्हें जानना चाहिए कि मैं अप्रतिहत बलो वासुदेव कृष्ण की पट्टमहिषी हूँ ! वह कृष्ण, जिसने नाग-शय्या पर चढ़कर दिव्य शार्ङ्गधनुष का सन्धान किया था। तब दिगुर्दिगन्त थर्रा उठे थे। क्या तुम्हारी भुजाओं में ऐसा बल है कि मैं तुम्हारी धोती धोऊँ, तुम्हारी दासी होकर रहूँ।”
"सुनो भाभी, दासी और रानी, दोनों ही की मुझे अपेक्षा नहीं; पर यदि आज मेरा बाहुबल देखने की तुम्हारी इच्छा है, तो उसे अवश्य पूरी कर देना चाहता हूँ।"
कहकर तुम तपाक से रथ में जा बैठे थे, और अकेले ही नगर को लौट पड़े थे। पीछे से हम सब भी हँसते बतियाने महल लौट आये। मैं ठहरा जनम का कौतुकी । तुम्हारे और सत्या के बीच जो घटा, उसे दूर से मैं चुपचाप देख-सुन रहा था। सो आगामी विस्फोट के लिए तैयार था ।
... तुम रथ से उतरकर सीधे सम्नाते हुए मेरी आयुधशाला में चले गये थे । दुर्निवार समुद्र की तरह तुम उस भयावह भुजंग शय्या पर यों चढ़ गये, जैसे सहज भाव से अपनी शय्या पर चढ़े हो । सहस्रों नागमणियों से दीपित शार्ङ्ग धनुष को तुमने खिलौने की तरह उठाकर तान दिया। उसकी टंकार से तमाम लोकाकाश थर्रा उठा । फिर तुमने मेरा पाँचजन्य उठाकर फूँक दिया तो दिशाएँ लताओं-सी कम्पित होकर तुम्हारे चरणों में लिपट गयीं ।
... अपनी कुसुम - चित्रा सभा में बैठे हुए मैं बड़े कौतुक - कौतूहल से तुम्हारी इस लीला को देखता रहा । मानभंग से क्षुब्ध होकर सत्यभामा मेरे पास दौड़ी आयी और बोली :
"नेमिकुमार की इस उद्दण्डता को देखकर भी, आप चुप बैठे हैं ! वह आपकी सत्ता को चुनौती दे रहा है !"
वासुदेव कृष्ण का पत्र तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम : 89