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होकर रहे । हमारे व्यक्तित्य जीवन की लीला में एक-दूसरे के पूरक होकर रहे । तुम सभ्चरदर्शी और सम्यकज्ञानी होकर रहे, मैं तुम्हारे समयदर्शनज्ञान को लोक में सम्यक् क्रिया और आचरण द्वारा रूपायित करता रहा। तुम शुद्ध आत्मयोगी होकर रहे, मैं शुद्ध कर्मयोगी होकर रहा। मैं तुम्हारे आत्म-योग को, आत्म-स्वरूप-स्थिति को, अपने कर्मयोग द्वारा, जीवन में प्रतिदिन संचालित करता रहा तुग पनि गर्म कर रहे, मैं इस धर्म को निरन्तर यथार्थ कर्म में परिणत करता रहा। मैं उस धर्म का संवाहक जाज्वल्यमान कर्म होकर रहा।
लेकिन स्थापित-स्वार्थी अनुयायियों ने अपने अहं की पुष्टि और स्वार्थ को तुष्टि के लिए मौलिक सत्ता के प्रतिनिधि-स्वरूप, हमारे अस्ति-आविः-संयुक्त युगल को छिम्न-भिन्न करके ही चैन लिया। मेरे अनुयायियों ने मेरे जीवन-चरित्र में से तुम्हें हटा दिया, और तुम्हारे अनुयायियों ने तुम्हें सर्वोपरि भगवत्ता के सिंहासन पर स्थापित करने के लिए, मेरा सत्ता-लोलुप प्रतिद्वन्द्वी
और प्रतिस्पर्धी के रूप में चित्रण करके, मुझे मायाचारी, कुटिल-कपटी और युद्ध-विग्रह का प्रेमी सिद्ध करने का प्रयत्न किया। इस तरह धर्म और कर्म का अविनाभावी युगल इन्होंने तोड़ दिया। फलतः लोक में धर्म की घनघोर ग्लानि उत्पन्न हुई है। ____...इस लड़के को सामने पाकर आज मेरा मन बहुत कोमल और संवेदनशील हो उठा है। कुछ पुरानी स्मृतियाँ तेजी से उभर रही हैं।...यों तो भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों तुम्हारे ज्ञान में सतत झलक रहे हैं, और मैं इन तीनों कालों में अपनी इच्छानुसार, चाहे जब मनमाना जी लेता हूँ। फिर भी अलग से आज कुछ बातों को मन के स्तर पर याद करने को मेरा जी उमड़ आया है। ___...तुम्हें बाद होगा नेमी, एक बार हम सब मिलकर, अपने-अपने अन्तःपुरों के साथ, 'महाकाम वन' के लीला-सरोवर में जल-क्रीड़ा करने गये थे। कुछ ऐसी तन्मयता से हम जल-केलि में निमग्न हो गये थे, कि हमें बाह्य देश-काल के व्यवहार-व्यवधानों का भी खयाल न रहा था। मेरे
वासुदेव कृष्ण का पत्र : तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम : 17