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पाया है। कहता है : 'आपको ध्याओं, आपको पूजो, आपको प्रेम करो, आपमें ही सर्व को पाओ, आपको पाना ही सर्व समस्याओं का समाधान है।' इसी मन्त्र-दर्शन के कारण वह तुम्हारा और मेरा समान रूप से प्रेमी ओर भक्त ह । कारण, यह हम दोनों हा के यथार्थ स्वरूप को पहचानता
लोक में धर्म की ग्लानि से बेहद पीड़ित होकर, यह तुम तक या मुझ तक पहुँचने को छटपटा रहा था। वह चाहता है कि अधर्म के बिनाश और धर्म के परित्राण तथा पुनःस्थापना का कोई महाप्रयत्न किया जाना चाहिए। तुम तो परब्राह्मी सिद्ध अवस्था में हो, लोक के केबल बीतसग द्रष्टा हो, सो तुमसे तो किसी प्रयत्न की प्रत्याशा न कर सका। लेकिन तुम्हें प्रणाम कर यह किसी तरह, अपनी ही अतलगामी यातनाओं की सह, मुझे खोजता हुआ, पातालों की इस तीसरी पृथ्वी में मेरे पास आ पहुंचा है। वर्तमान लोक के आयुमान से ती अब वह वृद्धत्व के किनारे खड़ा है, मगर तुम्हारे-हमारे यानी शलाकापुरुषों के आयुमान से अभी इसका कुमारकाल ही चल रहा है। भाव और भंगिमा से लगता भी निरा लड़का ही है। ठीक मेरी ही तरह एकबारगी ही लीला-चंचल और गम्भीर है। अन्तःकरण से आत्मस्थ, सौम्य और सर्वप्रेमी है, लेकिन प्रवृत्ति में मेरे जैसा ही उद्धत और तूफानी है। चींटी और वनस्पति तक की पीड़ा से संवेदित होता हैं; मगर असत्य और अन्याय पर तलवार बनकर टूटता है। सो यह लोक में निरा सर्वहारा होकर रह गया है। लेकिन बेचारा तो कहीं से लगता नहीं। सर्वालिंगन और सर्वसंहार, एक साथ इसकी दोनों भौंहों पर खेलते हैं।
...नेमी, इस लड़के को सामने पाकर मुझे तुम्हारी बहुत-बहुत याद आ गयी। लड़का बोला : कुछ करना होगा, वासुदेव ! लोक में धर्म की वह घरम ग्लानि अब जीने नहीं दे रही। बोला कि-वीतराग प्रभु नेमिनाथ तो मेरी त्राहि माम्' सुनते तक नहीं; वे तो अपनी सिद्धावस्था में अविचल लवलीन हैं। पर आपकी वे सुनेंगे, क्योंकि आप उन परब्रह्म-पुरुष के ही संयुक्त लोकपाल स्वरूप महाविष्णु हैं। हो सके तो आप दोनों मिलकर कोई
वासुदेव कृष्ण का पत्र : तीर्थकर नेमिनाथ के नाम : 8.5