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रहे हैं। ऐसा लगता है कि राजगुरु महर्षि सिळ का स्थान, राजत्व के क्रीतदास द्रोणाचार्य ने ले लिया है। ___...चिन्ता तो तुम्हें और मुझे क्या व्याप सकती है : तुम यह खेल वीतराग भाव से देख रहे हो, और मैं चूत को इस चौसर में धूत का पासा
और खिलाड़ी एक साथ बनकर खेल रहा हूँ। कभी भी वह क्षण आ ही सकता है, कि इन प्रमत्त खिलाड़ियों का पासा बना हुआ मैं, एकाएक सुदर्शन-चक्र हो ज्यूँगा, और इस सारी बाजी को विपल मात्र में उलटकर फेंक दूंगा। 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत' के अपने कौल के अनुसार 'धर्मसंस्थापनार्थाय' मेरे युग-युग-सम्भव स्वरूप के प्रकटीकरण का ठीक मुहूर्त अब आ पहुँचा है।
प्यारे नेमी, एक मजेदार इत्तिफाक हो गया है कि मेरे धर्मसंस्थापनार्थ फिर से अवतरित होने की यह घोषणा, एकाएक इस पत्र द्वारा मुझसे हो गयी है। (दिल्ली, लन्दन, न्यूयॉर्क, मास्को और पीकिंग में इससे निश्चय ही तहलका मच जाएगा) : एक लड़का इसका निमित्त बन गया है। अपने जीवन में सर्वांगीण यातनाओं की पराकाष्ठाएं भोगकर, वह श्रीगुरुकृपा से किंचित् जाग उठा है । और जगत् की अनुयायी भेड़िया-धंसानों से छिटककर साहसपूर्वक अलग खड़ा हो गया है। लोक में अन्तिम रूप से हो रही धर्म की ग्लानि से इसकी आत्मा सन्तप्त और सन्त्रस्त है।
यह लड़का अपनी मूलगत चेतना से ही अनुयायी प्रकृति का नहीं है, चल्कि प्रेमी स्वभाव का है। यों लोक में यह तुम्हारे ही अनुयायी जैन कुल में जन्मा है, किन्तु प्रेमी भाव-चेतना के कारण सहज ही अनेकान्तदर्शी और सत्यदों है। सत्ता का समन्वित स्वरूप इसके स्वभाव में स्पष्ट झलकता है। सो यह अनुयायी किसी का नहीं, केवल अपने आत्म-स्वरूप और आत्म-धर्म का अनुगामी है। अपने श्रीगुरु से भी इसने वही जीवन-मन्त्र
84 : एक और नीलांजना