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चैयायिक योद्धाओं के बुद्धिबल की टक्करों का एक खासा कुरुक्षेत्र हो हो गया। ___ इन्हीं अनुयायियों की कृपा है, कि इनके रचे शास्त्रों ने तुम्हारे और मेरे बीच अज्ञानान्धकार की एक अभेद्य वन-दोवार ही खड़ी कर दी है। हम दोनों तो परम्पर एक-दूसरे को आत्पस्थिति को यथार्थ रूप में समझते हैं और परम सत्ता में यथास्थान जुड़े हुए हैं। हम दोनों एक ही परम सत्ता की दो अनिवार्य स्थितियों और अभिव्यक्तियाँ हैं। तुम आत्म-सत्ता की स्थितिमत्ता के अधीश्वर हो, और मैं उसकी निरन्तर गति-प्रगतिमत्ता का अवतरण हूँ। तुम सत्ता के केन्द्रस्थ परम पुरुष हो, मैं उसकी व्याप्ति में आधारभूत सन्तुलन का संयोजक हैं। तुप मत्ता के अन्तर्मुख एकत्व के सुमेरु हो, मैं उसके बहिर्मुख बहुत्य का संवाहक हूँ। तुम परात्पर परब्रह्म हो, मैं महाविष्णु लीला-पुरुषोत्तम हूँ। मगर इन अनुयायियों ने अपने सीमित मति-श्रुतिज्ञान से, अपनी वैकल्पिक मानसिक बुद्धि और उसके द्वारा रचे शास्त्रों से, एक ही नानामुखी अनेकान्तिक सत्ता का मनमाना ऑपरेशन करके परम सत्ता को विकलांग और लहूलुहान कर दिया है। इन्होंने अपनी भ्रामक बुद्धि के तीखे फलों से, तुम्हें और मुझे काटकर, अलग-अलग करके फेंक दिया है।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ है, कि बुद्धि की वह अलगाव और भेद-भिन्न-भाव की वृत्ति पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है। और इस तरह मौलिक सत्ता के व्यवच्छेदन से, उसका व्यंजक जो धर्म है, उसके लोक से सर्वधा विलुप्त हो जाने की संकट-घड़ी आ पहुँची है। इस चरम अहंकार और स्वार्ध-लिप्सा से जब भिन्नत्वकारी धर्माचार्यों का पतन हो गया, तो धन और सत्ता की लोलुप राजनीति ने धर्म का स्थान छीन लिया है, और भगवान् के आसन का उच्छेद कर दिया है। और अब ये उद्दण्ड राजपुरुष ही लोक के स्वयं-नियुक्त विधाता बन बैठे हैं। इन राज-सत्ताधीशों का आतंक इतना प्रबल हो गया है कि वर्तमान में पृथ्वी पर विद्यमान सच्चे धर्मगुरु भी, जाने-अनजाने इन राजपुरुषों के हाथों के हथियार बनते जा
वासुदेव कृष्ण का पत्र : लोथंकर नामनाथ के नाम : १३