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निरूपण करते हैं, और अन्ततः वस्तु-सत्य को शब्द द्वारा अकथ्य मानते हैं, और उसो शास्त्र में आगे जाकर, वे अन्य मान्यतावाले धर्माचार्यों के कथनों का जोरों-शोरों से खण्डन भी करते हैं। जब वे यह समझ चुके हैं, कि शन्द में सत्य का कधन केवल एकदेश ही हो सकता है, फिर चाहे उनका अपना हो या दूसरों का हो, तब उसी शब्द द्वारा वे दूसरों के कथन का खण्डन कैसे कर सकते हैं ? हर कहीं भाषा में कहीं गयी बात को, सापेक्ष भाव से ग्रहण करना ही क्या सच्ची अनैकान्तिकता नहीं है ? और इस दृष्टि से क्या कोई भी 'समंजस-ज्ञानी' और 'अविरोधवाक् सर्वज्ञ तीर्थंकर का अनुयायी, किसी अपने से अन्य के शास्त्र या मत का खण्डन करता है ? और यदि वह ऐसा करता है, तो क्या वह एकान्तबादी और हिंसक नहीं हो उठता ? क्या इस तरह वह लोक में सर्वज्ञकेवली और उनके केवलज्ञान का अपलाप हरी नहीं करता है : ET : ह अपने अनेकान्तवाद और बस्तु के अनैकान्तिक स्वरूप का स्वयं ही हत्यारा नहीं हो जाता
सभी धर्म-प्रवर्तकों के इन अनुयायियों की कृपा से लोक में धर्म की ऐसी ग्लानि हुई है, कि आज पृथ्वी पर से धर्म के विलुप्त हो जाने का खतरा सामने है। देख रहा हूँ, चिरकाल से इन ज्ञानाभासी मानव-अनुयायियों की यही प्रवृत्ति रही है कि वे अपने किसी एक प्रिय शलाकापुरुष को अपना गुरु बना लेते हैं, और उसी को सर्वोपरि देवत्व के आसन पर बिठाकर, अन्य सारे शलाकापुरुषों के भ्रामक और गलत चित्र अपने शास्त्रों में
आँकते हैं, और इन सबको अपने मनमाने चुनिन्दा महापुरुष के चरणों में बिठा देते हैं। भरत-क्षेत्र के आर्यखण्ड भारत में इस समय वह प्रवृत्ति पराकाष्ठा पर पहुंची है। हर किसी सच्चे गुरु के अनुयायी भी, हर दूसरे सच्चे गुरु के खण्डन और निन्दा में हो अपनी गुरुभक्ति की इतिश्री समझते हैं। तुम्हें तो पता ही है, पुरातन और मध्य-युगों में इन अनुयायियों ने अपने हठीले बौद्धिक आग्रह की तुष्टि के लिए अपने-अपने तकों के न्यायशास्त्र ही रच डाले; और फलतः धर्म आत्म-साक्षात्कार का क्षेत्र न रहकर,
82 : एक और नीलांजना