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तुम्हारे अनुयायियों के पापों का प्रक्षालन करने के लिए, मैं तत्काल नरक की 'वालुका-प्रभा' नामक तीसरी पृथ्वी में हूँ, और तुम सिद्धालय में विराजमान हो । सो यह पत्र सारे लोकाकाश में गुजरकर ही, तुम तक पहुँच सकेगा। खानगी होते हुए भी, खानगी यह रह नहीं पाएगा। तुम्हारे और मेरे अनुयायी खामखाह इसे पढ़ ही लेंगे। और स्थिति में तुम्हारे अनुयायियों को, मेरा तुम्हें 'प्रिय नेमी' सम्बोधन किसी कदर अखरेगा भी । कहेंगे कि नरक भोग रहा है, फिर भी उद्दण्डता गयी नहीं। तीर्थंकर नेमिनाथ को, साक्षात् सिद्ध परमेष्ठी को 'प्रिय नेमी' कहने से बाज नहीं आता। पर इन एकान्तबादी हठधर्मियों को कैसे समझाऊँ कि तुम मेरे त्रैलोक्येश्वर भगवान नेमिनाथ, और प्रिय सखा नेमी एक साथ हो। और सारे ही सम्बन्धों और सम्बोधनों को एक साथ जी चाहा जीने और खेलने की जीवनमुक्त दशा ही मेरी एक मात्र आत्मस्थिति है। वही मेरी मूलगत अन्तश्चेतना है।
जैनाचार्य पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' नामक अपने ग्रन्थ में, एक बहुत सुन्दर बात कही है। वे कहते हैं कि, तीर्थंकर के केवलज्ञान में जो झलकता हैं, उसका असंख्यवाँ भाग ही, उनकी दिव्य-ध्वनि में मुखरित होता है। और उनकी मुखर दिव्य ध्वनि का असंख्यवाँ भाग ही उनके गणधर ग्रहण कर पाते हैं। और उस ग्रहण का भी असंख्यवाँ भाग ही, गणधरों के प्रवचन में प्रकट होता है। और उस प्रवचन का भी असंख्यवाँ भाग उनके शिष्य सुन - समझ पाते हैं। और उन शिष्यों द्वारा पाये गये प्रतिबोध का भी असंख्यवाँ भाग शास्त्रों में लिपिबद्ध होता है। और इस शास्त्रीय वाङ्मय की क्रमशः विलुप्ति और फिर प्रज्ञप्ति में केवली के कथन का कितना सत्यांश बच पाता है, सो तो तुम और मैं दोनों मन-ही-मन जानते ही हैं। फिर भी मजा यह है कि तुम्हारे और मेरे दोनों ही के अनुयायी शास्त्रकार 'अन्तिम बात' और 'चरम शब्द' कहने का दावा करने से चूकते नहीं हैं।
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तुम्हारे अनुयायी अनेक आचार्यों के इस बाल्य प्रलाप से मेरा बड़ा मनो-विनोद होता है कि वे एक ओर तो वस्तु के अनेकान्त स्वरूप का
वासुदेव कृष्ण का पत्र : तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम 81