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वासुदेव कृष्ण का पत्र : तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम
प्रिय नेमी,
तुम्हें अलग से याद करने की आवश्यकता मेरे लिए नहीं। निरन्तर तुम्हारे साथ, कण-कण के साथ, योग-मिलन में रहना ही मेरा स्वभाव है। लेकिन लोला-पुरुष हूँ न, सो देश-काल में भी मनमाना खेलता रहता हूँ। मानुषोत्तर हूँ अपनी स्थिति में, पर अपनी गति-विधि में, मानुष भाव से भी उन्मुक्त विचरता रहता हूँ। स्थिति और गति-परिणति, दोनों ही का संयुक्त रूप हूँ मैं। कहा न, कि लीलाधर्मी हूँ। और इसी लीलाभात्र में, आज तुम्हारी याद बहुत आ रही है। कारण-अकारण, तुम्हारे साथ जिये अतीत को फिर से जी जाने की इच्छा हो आयी है। जान पड़ता है. तीर्थंकर महावीर की इच्छा है, कि उनके जन्मोत्सव के मुहूर्त में, तुम्हारे-अपने संयुक्त जीवन की मर्म-कथा जगत् को फिर से सुनाऊँ।
__ अन्तर्तम संवेदन के इस क्षण में, 'प्रिय नेमी' सम्बोधन हो स्वाभाविक रूप से मेरे मन में फूट रहा है। तुम मेरे अनुज थे, सो मनुज-सुलग दुलार से ही तुम्हें पुकराना आज अच्छा लग रहा है। प्रभु, भगवान्, या तीर्थंकर के मौलिक सत्ता-स्तर पर तो हम दोनों ही एक-दूसरे को प्रतिक्षण 'परस्परटेवो भव' की स्थिति में ही अनुभव करते हैं। पर इस क्षण मेरा 'मूड' एकदम वैयक्तिक है : और तब स्वभावतः तुम्हें 'प्रिय नेमी' ही कहने को जी चाहता है। तुम तो जानते हो, मैं टहरा लीला-परुष, एक साथ वैयक्तिकला और निशक्तकता के स्तरों पर जीता और खेलता हूँ।
30 : एक और नीलांजना