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..पैं पुरुष भी हूँ, मैं स्त्री भी हूँ। मैं किसी को नहीं, अपनी ही हूँ ....आ गये मेरे नाथ, मेरे एक मात्र अपने, मेरे आप मेरे मेरी अन्तमा
के रम्हण, आत्मन्,
आ गये
तुम... ?"
भव, लज्जा, गोधन, ग्लानि, परिताप, मर्याश की सारी ग्रन्थियाँ अनायास ही यो उन्मोचित हो चलों, जैसे पर्वत शिखर में से एकाएक झरना फूट पड़ा हो ।
... उदभिन्न, दुर्दाम, उन्मुक्त, देह के भी आवरण से परे दिगम्बर, यह चिदम्बरा, निर्ग्रन्थ उठ खड़ी हुई एक दुर्जेय सर्वजयी ताण्डव लास्य की मुझ में वह्निमान् महाचण्डिका चिर नग्ना महाकाली । दुर्जेय कुमारिका : शाश्वती बाला : सर्वपातीता : त्रिभुवन सुन्दरी योनि और लिंग उसकी उल्लम्ब नर्तित बाहुओं पर मात्र लीला सर्प बनकर खेल रहे थे।...
उस प्रलयंकरी, शंकरी को साक्षात् सम्मुख पाकर, रथनेमि एक महाभव से चीत्कार उठे। अगले ही क्षण, वे अपनी मौत आप ही मर गये।... अपने भीतर उन्होंने अपना शव देखा। और उस शव की छाती पर एक पैर धरकर, एक पैर अधर में उठाये, वह कौन दिगम्वरी अनन्त लास्य में लीन हैं !
..और उन्होंने अपने शव के भीतर से जागकर उठते अपने शिव को देखा। उनके अंक में उनके साथ ही अवतरित हुई थी, उनकी शिवानी । उनकी अपनी ही आत्मजात अंगना । निराकुल, वीतराग, निष्काम, निरीह, वे सहज ही उसमें रमणलीन थे, और अपने-आपको देख रहे थे ।... "...माँ...माँ...माँ !" पुकारते हुए रथनेमि जाने किसके चरणों में लोट
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गये।
पर गुफा में उनके अपने अतिरिक्त और कोई नहीं रह गया था।
(1 मार्च, 1973)
लिंगातीत : 79