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गर्यः . प क बाद परताउ- निती बली ची। उसके मूलाधार में एक मर्मबंधी बलाघात-सा हुआ। उसे बोध हुआ : उसकं अन्ततंप के अथाह में से गिरनार का एक शृंग उठा चला आ रहा है। 'भयावह और सर्वस्वहारी है उसको वेधकता, उसको उत्तुंगता, उसकी उत्तानता। और उसके भीतर जैसे गूंजा : ___"कोई किसी का नाथ नहीं : तुम स्वयं अपनी नाघ हो। तुम स्वयं ही अपनी संरक्षिका हो, परित्राता हो, सर्वशक्तिमान् ! अपने को पहचानी
राजुल...!"
___"मैं...मैं कौन हूँ.. मैं कौन हूँ ?...जिसे मैं गोपन कर रही हूँ, वचा रही हूँ, क्या वहीं मैं हूँ : क्या मैं योनि मात्र हूँ, क्या मैं उरोज मात्र हूँ ? क्या मैं काया मात्र हूँ ? वह काया, जिस पर मेरा वश नहीं, जिसकी रक्षा में नहीं कर सकती, जो इस क्षण स्वयं अपनी भक्षक हो उठी है ? मेरा यह सौन्दर्य, मेरा यह नारीत्व, जो स्वयं इस क्षण मेरा शत्रु हो उठा है, अपना ही शत्रु हो उठा है : जोभपनी स्वाधीन इच्छा तक का नहीं है, जो इच्छा, मेरी अपनी नहीं : हर पल जो मुझे छलती है ? तो फिर मैं कौन हूँ, क्या है मेरा निजत्व, निज धन, मेरा स्वायत्त सर्वस्व ? योनि मात्र ? जिसे मैं जितना ही अधिक छुपा रही हूँ, इचा रही हूँ, संरक्षित कर रही हूँ, उतनी ही अधिक प्रचल और अदम्य अस्त्र अन रही है वह, मेरे विरुद्ध, मेरे बलात्कारी के हाथों में। स्पष्ट प्रतीति हो रही है, कि गोपन है इसी से आवरण है, आवरण है इसी से आकर्षण है, आकर्षण है तो स्खलन है ही। जितना ही अधिक गोपन कर रही हूँ, उतना ही दुर्निवार आकर्षण अपने चहुँ ओर जगा रही हूँ, उतनी ही अधिक स्वयं भी स्खलित हो रही हूँ,
आत्म-च्युत हो रही हूँ।... ___ "तव कौन हूँ मैं, इससे परे, क्या हूँ ? इस सबके बाद जो बच गयी हूँ, संज्ञाहीन, परिभाषातीत. वचनातीत...वहीं मैं हूँ। अखण्ड, एक, अक्षुण्णा, अच्युत । ओ...मैं, जान गयीं, पा गयी, पा गयो अपने को।...अरे नहीं हूँ मैं योनि, नहीं हूँ मैं लिंग, नहीं हूँ मैं काया। मैं स्त्री नहीं, मैं पुरुष नहीं।
78 : एक और नीलांजना