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दूसरे में थी मयूर पिच्छिका। पिछला पैरा तुम्हारा उपत्यका के आँचल में था और अगला पैर गिरनार की निरालम्ब खड़ी चट्टान पर ।
"नाथ...!"
....समूचा पर्वत पसीज उठा उस सम्बोधन से। पर तुम अवाक, अकम्पायमान मानुषीत्तर पर्वत थे ।
"स्वामी, राजुल के लिए इस पृथ्वी पर अब स्थान नहीं।..... उत्तर में केवल अरण्यानी हहरा उठी
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“एक बार मेरी ओर देखो...!"
"नेमिनाथ से मिलन अब गिरनार के शिखर पर ही हो सकता है, राजुल "
लौटकर तुमने नहीं देखा। और निमिष मात्र में तुम उस खड़े दुर्गम पर्वत पर छलाँगें मारते दिखाई पड़े।... अचानक भयानक सिंह गर्जना से तलहटियाँ थर्रा उठीं। और तुम आकाशवाहिनी चोटियों के नील शून्य में जाने कहाँ ओझल हो गये ।
....तुम्हारे आदेश के सिवाय, मेरा अस्तित्व ही क्या था ! तुम्हारे ही लिए राजुल जनमी थी। सो अनुगामिनी हो गयी ।...
तब से सारे भावों और संवेदनों से परे, बस, तुम्हारे चरणों की अलक्ष्य गति होकर चली चल रही हूँ। काल के बीतते बरसों में नहीं जी पा रही हूँ, सो याद नहीं कितने बरस बीत गये। केवल तुम्हारी महेच्छा को समर्पित, चुपचाप चली चल रही हूँ। कहाँ जाना हैं, क्या पाना है, यह भी कभी नहीं सोचा ।
... आज इस अटवी में अकेली भटक गयीं। सहचरी आर्यिकाएँ जाने कहाँ छूट गयीं। एकाएक इस अँधियारी बादल-बेला में घिर गयी। हवा में छायी जलिमा से मेरी देह की पृथ्वी जाने कैसी पारगामी संवेदनाओं से भींज उठी है। अपना नाम, नगर, कुल, कौमार्य, कुँवारी साथ, अपना रूप लावण्य, सभी कुछ याद हो आया है। और भीतर जन्मान्तरों की जाने कितनी ही यवनिकाएँ उठती चली जा रही हैं ।
72 एक और नीलांजना