________________
अर्पित कर दिये। तुम रथ से उतरकर, पलक मारते में, एक विद्युत् तीर के वेग से मथुरा के नगर- तोरण के पार हो गये। उलटे पैगे लौटती बारात के अश्वों, हाथियों, रथों, थोद्धाओं और राज-पुरुषों की पद धूलि, तथा यादवों के पराजित ऐश्वर्य की चीत्कार में मथुरा डूब गयी। त्रिखण्ड पृथ्वी के अधीश्वर, सुदर्शन चक्रधारी, शार्ङ्गपाणि वासुदेव कृष्ण भी, तुम्हारे पीछे भागकर तुम्हारा पता न पा सके तुम्हें लौटाकर न ला सके ।...
....मेरी आँखों के सामने पड़ी थी मेरी जमकर वज्र हो गयी छाती । छिन्न-भिन्न, लहूलुहान पड़े एक कुमारी के हृदय पर मुझे कुछ करुणा- सी हो आयी। मैं गजल नहीं रह गयी थी कोषावरण से बाहर खड़ी होकर मैंने राजुल को देखा। नीले अंशुक में न समाती-सी यह नील- लोहित-सी एक ज्वाला निश्चल पर लोक के तमाम कम्पनों और अनुकम्पनों को अपने में समाये हुए।... फिर भी मुझे उस पर दया आ गयी, किन्तु अगले ही क्षण मैं निर्दय हो गयी भाव संवेदन से ऊपर उठकर मैंने अपने पार देखा ।...
:
मैं मथुरा की अनन्य सुन्दरी राजकन्या नहीं रह गयी थी। मैं किसी भूमि, किसी वंश, किसी मयांदा किसी मानुष भाव में न ठहर सकी। मुझे पीछे लौटकर देखने का सोचने का भान नहीं रह गया था।...इतना भर याद है कि अपने रथ का आप ही सारथ्य करती हुई, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपनी छाती की बिजलियों से रौंदती हुई, मैं द्वारिका के समुद्र- तोरण पर जा खड़ी हुई थी। मेरी पृच्छा पर द्वारपाल ने सिर लटका दिया था। इतना ही बोला वह : '... महाराजकुमार अरिष्टनेमि आज ही ब्राह्म मुहूर्त में महाभिनिष्क्रमण कर गये। वे इस समय गिरनार पर आरोहण कर गये होंगे। उस महाकान्तार में उनका पता पाना सम्भव नहीं ।"
.. आकाश के पटलों को कँपाता मेरा रथ, गिरनार के एक गुप्त पार्वत्य तोरण पर जाकर आपोआप ही, अचानक स्तम्भित हो गया ।
फूटती द्वाभा में महापर्वतारण्य के निसर्ग चट्टानो तोरण के बीचोबीच तुम निश्चल पीट दिये, दिगम्बर खड़े थे । एक हाथ में था कमण्डलु और
लिंगातीत 71