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में। हाँ, याद आया, मैं ही तो राजुल हूँ। पर मैं तो न जाने कब से राजुल नहीं रह गयी हूँ। कोई नहीं रही बस, अ-कोई हो रही हूँ। अपने ही से अनजान मात्र एक गति, एक परिणमन पर इन घिरते बादलों की नीलाभा मुझे सहसा ही आज फिर अपने में लौटा लायी है।... हरिवंशियों को इस नोली मोहिनी का अन्त नहीं।
... छोड़कर चले गये हो, शून्य का भेदन करने। फिर क्या सूझा है, कि इस अनन्त काल की विरहिणो के एकान्त में अजीब जामुनी उत्तरीय ओढ़कर मण्डला रहे हो । जब अपनाकर भी छोड़ गये, तो क्यों मुझे अपने होने की याद दिलाने आये हो ? ऐसा प्राणहारी और निष्ठुर खेल खेलने में तुम्हें क्या मिलता है, यदुवंशी अपनी खोज में गये हो, तो अपने में ही रहो न ... मेरे तुम होते ही कौन हो ?
माटी की इस भीनी ममं गन्ध ने, मेरे रूप को आज फिर से सौ गुना मेरे सामने उजागर कर दिया है। ये लहरों-सी बाँहें, ये सपनीली आँखें, पीले मकरन्द से भरे पुण्डरीक-सा यह चेहरा ।... नहीं, यह मेरा नहीं रहा । जिसे अर्पित कर चुकी, वह ले या न ले, मुझसे क्या मतलब ? तत्त्वों में यह रहे, या विसर्जित हो जाए, मुझे क्या अन्तर पड़ता है ? मैं तो अपनी ही नहीं रही ।....
इस एकान्त को बादली नीरवता में, अपने सौन्दर्य को सहसा ही यों सामने पाकर आत्म-विमोहित हो गयी हूँ। मेरी चेतना की परत परत जाने कितनी विदध यादों और संवेदनों से विगलित हो आयी है।
... अपने महल के सबसे ऊँचे गवाक्ष पर चढ़ी थी मैं, उस दिन तुम्हें देखने। तब पृथ्वी का कोई सिंगार तुम्हें मोहने लायक नहीं लगा था। केवल तुम्हारी ही देहाभा के रंग का हलका नीला उत्तरीय भर स्वीकारा था। सुहाग की गुलावी कंचुकी भी रुचिकर नहीं लगी थी। धारण किये थे केवल तुम्हारे भेजे मणि-चलय, और तुम्हारी भेजी कमल- केसर का तिलक |... यादवों का देवोपम वैभव और परिकर लेकर तुम्हारी बारात मथुरा के राजपथ पर चढ़ी थी । वासुदेव कृष्ण की चूड़ामणियों से सारी मथुरा झलमला उठी थी ।
लिंगातीत 59