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लिंगातीत
आख्यान राजुल और नेमिनाथ का
रैवतक पर्वत के शिखरों पर आषाढ़ के पहले बादल घिर आये हैं। सारी वन-भूमि बादलों की छाया में स्तब्ध है। यह नीरवता अपूर्व है। देह धारण कर यह मुझे छुहला रही हैं। असह्य है यह शून्य का स्पर्श : पेरे अणु-अणु को इसने जगा दिया है। कौन है यह शून्य-पुरुष ? अनिर्धार यह मेरी चेतना के अज्ञात स्तरों और आयामों को बींध रहा है, खोल रहा है। कितनी मार्मिक और बेधक है यह संचेतना ..... ___ इतनी अकेली को पहले कभी नहीं हुई। यादल गहराते जा रहे हैं। नीली छाया का यह लोक कितना अपार्थिव है ! इस घनीभूत एकान्त में, मैं अपने आपने-सामने हो गयी हूँ।...देख रही हूँ अपने को। किसी की साँवली नीलाभ कान्ति दिगन्तों तक व्याप गयी है। कोई आकृति नहीं, बस एक आभा का असीम विस्तार है : एक नीलम का विराट् दर्पण। इसके सम्मुख नितान्त अकेली खड़ी हूँ मैं । नाम, संज्ञा, कुल, देह से परे अ-कोई . मैं । चारों ओर घिरी है, भयावनी रमणीय अरण्यानी। इसके पल्लव-परिच्छद में जाने कैसी लये उभर रही हैं। कण-कण अनबरसे जल से आई हो आया है। भीतर-ही-भीतर भीज उटी मार्टी की यह सौंधी सुगन्ध मेरा नाम पूछ रही है।...याद दिला रही है मुझे अपने होने की, और जाने किसकी ? ...उसकी, जिसे अपने से बाहर सोचना मैं जाने कब से बन्द कर चुकी
___...राजुल !...किसने, किसे पुकारा इस नीरव की अचिन्ही व्याकुलता
63 : एक और नीलांजना