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चूड़ा की खोज में जा रहा हूँ।"
"नीलांजना की खोज में ?"
"इससे इंध्यां न करो, यश, उसकी कृतज्ञ होओ। तुम्हारे भीतर आने का द्वार बन गयी है वह।" ।
"यह मायाविनी ?" ___"हाँ, उस भाषा के अवगुण्टन में अमोघ शक्ति है। वह अनिवार्य चुनौती है। उसका उत्तर मुझे देना होगा। उसी अवगुण्टन को उलटने जा रहा हूँ, कि यशस्वती तुम्हारा, सुनन्दा तुम्हारा, एक और असली चेहरा देख स. !"
"उसके लिए हमें छोड़कर कहीं जाना होगा ? किसी अन्यत्रता में ?"
"इस राजमहल में, हजारों वरस तुम्हारे साथ सुखोपभोग किया। पर यह परम सौन्दर्य न मिला, कि पूर्णकाम हो सकूँ, पूर्ण तृप्त हो स. : तुम्हारा वह 'एकमेवाद्वितीयम्' लावण्य, न मिल सका, जो मेरा भी हो, तुम्हारा भी हो; अविभक्त रूप से। वह सौन्दर्य, जिसका ह्रास नहीं, विनाश नहीं।''
"उसके लिए मुझे त्याग जाना होगा, छोड़ जाना होगा ?"
"तुम्हें त्यागकर नहीं जा रहा, छोड़कर नहीं जा रहा । तुम्हें समग्र पा लेने को जा रहा हूँ, तुम्हारे अनन्त को भोगने के लिए जा रहा हूँ।...किन्तु सर्व को पाने के लिए, खण्ड को त्यागना होगा। नित्व भोग की उपलब्धि के लिए. अनित्व से निष्कान्त हो जाना पड़ेगा। अमृत में जीने के लिए, मर्त्य को अतिकान्त करना होगा।''
"उसके लिए, नीलांजना की खोज अनिवार्य है ?" ''क्यों नहीं ! जो लुप्त हो गयौ है, मात्र वही नीलांजना नहीं है। वह और भी है...कहीं वह अशेष है। वहीं, जहाँ तुम भी अशेष हो । नीलांजना तुमसे याहर कहीं कोई नहीं।...यह मात्र पाबा थी : मात्र तुम्हरा अवगुण्ठन !"
फिर वह कौन है, जिसकी खोज में मेरे देवता निष्क्रान्त हो चले
__ “कमेव सुन्दरी, जिसका विनाश नहीं। जो पूर्ण कामिनी है, जो
पक और नीलांजना : 65