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यशस्वती और सुनन्दा अपनी-अपनी अटारियों से उतरकर, भागती हुई नीचे
आ पहुँचीं । सदा वन्द रहनेवाला अन्तःपुर का वह सिंहापौर आज अकस्मात् कैसे खुल पड़ा है...?
उत्तुंग मरु-शिखर की तरह दण्डायमान, भगवान् वृषभनाथ, दायाँ पैर द्वार-देहरी पर धरे, और बायौँ पैर नीचे की सीढ़ी पर रखे निश्चल खड़े
धे।
दोनों महारानियाँ आमने-सामने, बिनत मुख, नमित नबन, स्तब्ध खड़ी रह गयीं। इस मूर्तिमान् पौरुष की ओर वे आँखें न उठा सकी।
"महारानी यशस्वती, आज की भोर, उदय होते सूर्य के साथ महाराजकुमार भरत, अयोध्या के राज-सिंहासन पर आसीन होंगे।...और सुनन्दा, अजितवीर्य बाहुबली की माँ को, मंगल-मुहूर्त में यह रुदन शोभा नहीं देता।..."
बोल फूटा मारामत: का :
देवता. यह क्या सुन रही हूँ :...एकाएक यह क्या ? समदा नहीं सकी ?" ___ "सच सुन रही हो, महारानी ! समझी नहीं ? ऋषभेश्वर के अन्तःपुर की वन-अर्गलाएँ टूट पड़ी हैं, इस ब्राह्म-मुहूर्त में !"
''सो तो देख रही हूँ ! पर क्यों..." ___ "इसलिए की अवधि पूरी हो गयी। सीमाएं टूट गयीं । ऋषभ निष्क्रान्त हो गया !"
“कहाँ जाने को यह महाप्रस्थान है ?"
"तुम्हारे पास आने को, सुनन्द्रा के पास आने को, सर्वचराचर के पास आने को !"
"पाल ही तो हो । चाहो तो और भी पास आओ।...दूर जाने के लिए बहाना बनाना चाहो, तो बात दूसरी है। क्या पास आने के लिए, और भी दूर जाना जरूरी है "
"टीक कह रही हो, वश ! पृथ्वी की उत्तुंगतम चूड़ा पर खड़े होकर ही तुम्हें सनूची पहचान सकूँगा : निखिल के आर-पार देख सकूँगा। उसी
it : एक और नोलजना