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मात्र वह एक शरीर हो नहीं थों, जो लुप्त हो गया है। तुम और भी बहुत कुछ हो, और भी जाने कहाँ कहाँ हो। तुमसे आगे एक और नीलांजना हैं : तुमसे परे एक और नीलांजना है।...एक और नीलांजना...एक और नीलांजना...एक और नोलांजना : एकमेव. अक्षय्य, अनन्त नीलांजना।... एक और यशस्वती, एक और सुनन्दा...एक और...एक और...एक और : नाम, रूप, देह से अतील बह एकमेव सुन्दरी, वह एकमेव वल्लभा, मेरी नितान्त अपनी, जितका विनोग नहीं।...जो मेरी अनन्चा योगिनी है, नियोगिनी है। जो मेरी एक मात्र काम्या है।...
...उसी सुन्दरी की मुझे खोज है।...जाना होगा उसकी खांज में...वह जहाँ भी हो। निाकान्त हो गयी है मेरी चेतना, जाने किन अगम्यों में...:
कय सान्य-स'मा विसर्जित हो गयी, ऋषभेश्वर को पता नहीं चला। कब वहाँ से उठकर, वे कहाँ चल पड़े, उन्हें नहीं मालूप ।
यशस्वती, शव्या के पायँताने सौ-सौ कमलिनियों के पाँवड़े रचकर, उन्हीं में तिर हाले, राल-भर अपलक आँसू सारती रही। सुनन्द्रा ने सेविकाओं
और परिचारिकाओं को सो जाने का आदेश दे दिया। और फिर सारी रात, बैडूर्य मणि को लालटेन लेकर महलों और उद्यानों के कोने-कोने ठानती फिरी। महारानी के पद-संचार से अयोध्या का राज परिकर हिल उठा । राजराजेश्वर का पता लगाने के लिए, दिशा-दिशा में अश्वारोही दौड़ पड़े। ...सव निष्फल । पृथ्वी के एकमेव प्रजापति, आदि ब्रह्मा, अपनी ही रचना में से एकाएक लाने कहाँ अन्तर्धान हो गये। ठीक उस नीलांजना ही की तरह : यह कला इन्द्रजाल है ! ___...ब्राह्म मुहूर्त में अन्तःपुर के पिछले महाद्वार की अगला आपोआप ही टूट पड़ी। एक प्रचण्ड फौलादी झनझनाहट से जैसे भूगर्भ काँप उठा।
एक और नीलांजना : 63