________________
राजसभा कौतूहल और आश्चर्य से कोलित हो रहीं। देखते-देखते जैसे दीप-निर्वाण हो गया। गया विद्युल्लता चित्त कं आकाश में कौंधी, और बिलुप्त हो गयो। ___ ऋषभेश्वर की दृष्टि. एकटक अपलक, अवकाश को वोध रही थी। ....इन्द्र का इन्द्रजाल अगे बढ़ा।
...छुप-अनन्-छूम...फिर राजसभा के फर्श पर रूप की वह विजली कौंध उठी। वही लावण्य, यहां लास्य, वहीं संगीत की धारा, वहीं अंग-अंगों की विदग्ध तोड़ें और मरोड़ें : वही प्राणहारी झंकारें। ___पार्पदों में फिर से प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी।...पर तीथंकर की अन्तर्दृष्टि में अन्तर साफ झलक आया ।...नहीं, यह बही नहीं है : वह
ही सन्दर्य नहीं, : .य.... TH, ही काहीं। यह वही भंगिमा नहीं, यह वही चितवन नहीं। वह सुन्दरी, वह रूपसौ, सदा को विसर्जित हो गयी, अवसान पा गयो !...
...नहीं, ऐसा कोई सौन्दर्य यहाँ नहीं, जो चिरकाल अक्षुण्ण रहे. एकमेव हो, समरस हो, जिसकी कोई शाश्वत स्थिति हो, इचत्ता हो : जो नित्य अपने स्वरूप में ध्रुव रहकर, नित नूतन होता रहे। जिसमें निरन्तर नवनवीन लास हो, विलास हो, किन्तु हास न हो, विनाश न हो !...
...ओह, तुम थीं नीलांजना ? लोकान्तिक स्वर्ग की अप्सरा ! आयु की एक तरंग से अधिक कुछ नहीं ? काल की एक हिलोर ! अस्ति नहीं, नास्ति ।..,कहाँ हैं वह सुन्दरी, जिसका विनाश नहीं ? जो मात्र काल की तरंग नहीं, जो साल से खेलती है, काल को जी चाहा रूप देती है, और फिर मिटा देती है। जो सदा थी, सदा है, सदा रहेगी। वह सुन्दरी किस देश में रहती है : कहाँ है उसका अजेय वातायन, देश-काल के समुद्रों पर आरोहण करता-सा ?...
नीलांजना, तुम, जो ऐसा अथाह रिक्त दे गयी हो, तुम नास्ति कैसे हो सकतो हो ?...तुम, जो अन्तिम वियोग का दंश दे गयी हो, उसका विनाश सम्भव नहीं। तुम उतनी ही नहीं थीं, जितनी दिखाई पड़ी थीं । तुम
62 : एक और नीलांजना