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आतकारी है। नही
सुन्दा भी है नीलांजना भी है। अलग-अलग नहीं । एकमेवाद्वितीयम् अनन्य सुन्दरी, एकमेव प्रिया... जिसको इयत्ता का नाश नहीं... जी अपने आपमें धुत्र होकर भी, अनन्त सौन्दर्य लहरों में परिणमनशील है |..."
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"मेरा जयं-तिलक स्वीकारी, देवता !"
माँग के सिन्दूर में डुबोकर, यशस्वती ने काँपती उँगली उठायी। नमित माथ हो, आदि प्रजापति महाविष्णु ने तिलक स्वोकारा | सुनन्दा वल्लभ के चरणों में फूट पड़ी। अपने लिलार की केशरिया पत्रलेखा से उसने देवता के चरणों की अर्चना की। रुँधे कण्ठ से यशस्वती पूछें बिना न रह सकी
"किस दिशा में प्रयाण करेंगे, हमें लिवा लाने को ?"
"कैलास की हिमानी चोटियों आदिनाथ को पुकार रही हैं, यशस्वती : हो सके तो कभी मानसरोवर बन जाना, झुककर उसमें अपना चेहरा देख लूँगा | अपना एकमेव चेहरा जो तुम्हारा भी होगा ।"
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... और दोनों महारानियों के कन्धों पर हाथ डालकर सम्राट् उपभदेव महल में प्रवेश कर गये। सारे खण्डों की सीढ़ियाँ पार की सारे शयन कक्षों के पर्यक पार किये ... घड़े उतरे, फिर चढ़े, फिर उतरे। महल के बाद महल पार करते चले गये । तम्यक् स्मित और पारदर्शी चितवन से अपार ऐश्वयं को कृतार्थ करते चले गये। उद्यान के बाद उद्यान पार किये। आँगन के बाद आँगन पार किये ।...
... छाया में ऊषा की मुसकान फूटी। सिंहतोरण पर महाप्रस्थान के अनहद शंखनाद गूँजने लगे। अयोध्या की राज सभा के गोपुरम् में राज्याभिषेक की भेरियाँ और शहनाइयाँ बजने लगीं।
अन्तरिक्ष में से कल्प-कुसुमों की राशियों बरसाते हुए, लौकान्तिक देव, नाना संगीत वाद्यों की ध्वनियों के साथ उतरते दिखाई पड़े। ब्रह्म स्वर्ग का
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अमित वैभव भगवान् वृषभदेव के चरणों की पूजा बन गया । सिंहद्वार के ठीक सम्मुख 'सुदर्शन' नामा पालकी प्रस्तुत थी । अनन्तों में उड्डीयमान हंस
66 : एक और नीलांजना