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है। यह आकुलता अपूर्व है। वह मोहिनी यशस्वती और सुनन्दा के पर से चली आ रही है।... ____...किन्हीं अदृश्य फूलों की विचित्र अननुभूत गन्ध में, चेतना पूर्छित हुई जा रही है, दूबो जा रही हैं। रत्न-दीपों का स्थिर-सा लगता आलोक चंचल हो उठा है। उसमें राशि-राशि इन्द्र-धनुपों की तरंगें उठ रही हैं।
...जाने किस अलक्ष्य में से, सहसा एक दूरान्तिक झंकार आती-सी सुनाई पड़ी। अवकाश में अति सूक्ष्म संगीत की बड़ी महीन, कोमल रागिनी उत्सित होने लगी। वृन्द बाघ को समवेत सुरावलियों में, असंख्य नक्षत्रों की नानारंगी किरणें, एक अलौकिक संगीत बनकर ध्वन्यायमान हो रही हैं। उत्तरोत्तर वातावरण प्रकाश, सौरम, प्रीत और रोगिरा कम्पनों से व्याप्त होता जा रहा है। कामलातिकोमल अदृश्य ज्वारों में सबकी चेतना अपने वश के बाहर इबी जा रही है। ___ ...संगीत की पूर्छा के छोर पर, क्षण-भर को द्रष्टा विलुप्त हो गया। उन्मनी तन्द्रा में अर्द्ध-निर्मालित, ऋषभेश्वर की आँखों के समक्ष, ऊपर से एक झलमलाती नीली आभा आकृत होती चली आयी।...समय के भान से परे, जाने कब, एक अपूर्वलावण्या सुन्दरी, राज-सभा के बीचोवीच नृत्य करती दिखाई पड़ी। क्षीर-सागर के मन्थन से निकली वारुणी जैसे साकार हो गया है। प्रतिक्षण नित-नूतन रूपों, भंगों और मुद्राओं में तरंगित है उसका सौन्दयं । चाहे जव आपोआप सहसा निराबरण हो जाती है : कि अगले ही क्षण उसके लहँगे के गगन-गम्भीर घेरों में सारी राज-सभा सिमट आती है। उसकी कंचुकियों के कोशावरणों में सातों समुद्रों की गहराइयाँ दभर आती हैं। उनके अंचलों में आकाश के अनन्त पटल लहराते हैं। उसके अंग-भंगों में से क्षण-अनुक्षण नित-नये अलंकार प्रकट होते हैं, और विला जाते हैं।
...उसके कटाक्ष बेमालूम पानीले फलों की तरह, चेतना की गहराइयाँ तराशते चले जाते हैं। अपूर्व और अनन्त है उसका लास्य ! उसकी नूपुर-झंकारों से पाँचों मेस जैसे दोलायमान हैं। उसकी मींड़ और मरोड़ से हृदय में
60 : एक और नीलांजना