________________
का अनिवार्य महर्न अग पहुँना है। लोक मा का-वाण प्रकाशित होने की व्याकुल है। वह अपने तीर्थंकर को पुकार रहा है। महासत्ता के गर्भ में कैवल्य-सूर्य कसमसा रहा है। आदिम अन्धकार की परत-परत कॉप रही है। 'सर्वकामपूरन महल' के शयन-कक्ष की मादक तमसा, त्रिलोक और त्रिकाल के सूर्य को बाँधकर नहीं रख सकती। शकेन्द्र ने पुकारा :
“नीलांजना..."
"और सोलहों स्वर्गों का सारभूत सौन्दर्य, नीलांजना प्रस्तुत होकर, प्रणिपात में नमित हो गयी। ___“नीलांजना, महाविष्णु ऋषभदेव ने तुम्हें याद किया है। हमारे समस्त स्वर्गों की रूप-शिखा हो तुम ! आज की सन्ध्या में ऋषभेश्वर तुम्हारे लावण्य की लौ का छोर देखना चाहते हैं !"
"तिलोत्तमा नीलांजना को देवेन्द्र की आज्ञा शिरोधार्य है।"
अयोध्या की "भुवनेश्वरी राज-सभा' में काल-बोध सम्भव नहीं । सो सन्च्या ने छतों, खम्भों और गहरी यवनिकाओं में झलमलाते निसर्ग रत्न-दीपों में मुँह छिपा लिया है।
कर्मभूमि के आदि प्रजापति वृषभनाथ, अपने अकृत्रिम रत्न-सिंहासन पर सिंहमुद्रा में निश्चल आसोन हैं। उनके राजकुमारों, मन्त्रियों और पार्षदों की श्रेणियाँ भी निस्तब्ध हैं।
विराट् सभागार में एक अपूर्व नीरवता व्याप्त है। धूपायनों से अगुरुधूप की सुगन्धित धूम्र-लहरियाँ उठकर उस मौन को गहरा रही हैं। वृषभेश्वर को बोध हुआ कि कुछ अलौकिक बटित होने जा रहा है।...नहीं, वे नहीं जानना चाहते उसे, अपने अवधिज्ञान से, मनःपर्वव ज्ञान से। अपने सारे उपलब्ध ज्ञानों से परे, आज उन्हें प्रतीक्षा है, किसी और ही अनन्य बोध की। उनकी आँखों की अनुराग-मदिरा इस क्षण राग के छोर पर तरंगित
एक और नीलांजना : 59