________________
भी अवकाश बीच में नहीं रहा : दो दूसरे होठों के पादरा-चपक में वह डूब गयी।
"मुझसे परे का सौन्दर्य मिला, प्रभु ।' ''कहाँ से मिलता रानी, तुम्हारी चारुणी के समुद्र का पार नहीं।'
"मैंने कब अवरोध दिया है :...और इस रात तो तुम्हीं रह गये घे: मैं हो रही केवल तुम्हारी अग्नि : तुम्हारी हर कामना की अग्नितरंग...!" ___“यही तो मुश्किल है। मेरी अग्नि ही जब मदिरा बनकर ढल गयी मेरी आँखों में, मेरे अणु-अप में, तो तुम्हारे पार भी केवल तुम्हीं को देख पा रहा हूं, यश, कंवल तुम्हें ! लग रहा है, अपरम्पार हो तुम ! मेरी हर पुकार में, और उसके छोर पर तुम खड़ी हो ।...मेरी खोज तुमसे आगे नहीं जा पा रही...!" ___"सच, मेरे आप, मेरे अहं, मेरे सोऽहम्...!"
"चैत्य-पूजा का समय हो गया, देवि ! मेरी आँखों में ढली अपनी खुमारी को पी लो, और जाने दो...." ___ वल्लभा, वल्लभ की दोनों आँखों को हौले-से चूमकर बोली :
“नहीं, आज नहीं जाने दूंगी।...अब कहीं नहीं जाने दूंगी...तुम्हारा 'भरोसा नहीं रहा। बड़े खतरनाक हो तुम, ओ मेरे पुरुष !"
और सहस्त्रावधि वर्षों के राज्यकाल में पहली बार, उस दिन की प्रातःकालीन राजसभा में, राजराजेश्वर वृषभनाथ के सिंहासन पर उदय होनेवाला सूर्य, सूना ही बीत गया।
लौकान्तिक स्वर्ग का इन्द्र चिन्ता में पड़ गया।...जागकर भी फिर सो गये महाविष्णु ऋषभदेव ! उनके अनन्त शयन को कमला ने और-छोर छा लिया है।...नहीं, अब विलम्ब शक्य नहीं। आदि ब्रह्मा के ब्रह्म-स्वरूप हो जाने
58 : एक और नीलांजना