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"बस, मैं तो तुम्हारी समर्पिता हूँ, शेष तुम जानो..."
"तो साक्षी बना, मेरी और अपनी भी ।...जो होने जा रहा है, उसके लिए तैयार हो जाओ; उसे देखो, उसे समझने की कोशिश करो...!" ___ "क्या हुआ चाहता है, मेरे प्रभु ! क्या होने को है पेरा,
तुम्हारा...?"
"कुछ होनेवाला है, जो अपूर्व होगा।...सारे लोकाकाश में एक विचित्र कम्पन हिलोरें ले रहा है. आज की रात । कर ऐसा आकार लिया चाहता है, जो पहले आकृत न हुआ...!" ___ "तुम्हारी यश से परे का कोई रूप, लावण्य, सौन्दर्य ?"
"हो सकता है,...मुझसे भी परे का सौन्दर्य, तुमसे भी परे का सौन्दर्य, जो तुम्हारा ही है, मेरा ही है, पर जिसे हम शायद जानते नहीं हैं !" __ "मेरे सर्वस्व, मेरे आत्म-पुरुष !..."
...और जन्मजात योगीश्वर भरत की जनेता, महारानी यशस्वती, तीर्धकर वृषभदेव के सर्व चराचर में विचरण करनेवाले चरणों में माथा डालकर सिसकती रह गयी। मेरु-निश्चल ऋषभ उसकी विरह-वेदना को देख रहे हैं, जान रहे हैं, उसके साथ तदाकार हो गये हैं : अपने आप में अन्तर्लीन।
सम्राज्ञी के इस शयन-कक्ष में सदा रात ही रहती है। बाहरी अन्तरिक्ष के सूर्य को यहाँ प्रवेश नहीं। यहाँ के एकमेव सूर्य हैं केवल ऋषभदेव। शेष में दिव्य मणि-दीपों, तथा रत्न-कणियों से गुंथी भारी यवनिकाओं से ही यह कक्ष आलोकित रहता है।
...ऋषभेश्वर जागकर उठे, तो महारानी की अंजुली में थमे ताजा सहस्रदल कमल पर, उनका मुख-मण्डल सूर्य-सा उदय हो गया। 'ॐ सोऽहो की अस्फुट ध्वनि अनायास ही उनके होठों से उच्छ्वसित हुई : श्वास का
एक और नीलांजना : 57