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को तृप्त करनेवाली भोग-सामग्री इसमें मौजूद है। इसके मणि-दीपों की निश्चल-प्रभा, इस आधी रात में, जैसे एकाएक बेचैन हो इटी हैं। यह रात मानो उसमें करवटें बदल रही हैं। एक सुगन्ध का समुद्र अपनी अनन्त लहरों का अतिक्रमण कर, कहीं और ही बहा जा रहा है।
अखण्ड नीलप चट्टान में से प्रत्कीर्ण, अपने शयन-कक्ष के अन्तर-द्वार में से महारानी यशस्वती एकाएक आविर्मान हुई।
तमाम समुद्रों की लहराती जलराशियों, जैसे किसी एक ही विशाल रत्न में बंध आयी हों, ऐसी एक मकराकृति शय्या के गहराव में ऋषभेश्वर अधलेटे हैं। उस शव्या के सहस्र फणाकार छत्र की नीलकान्त पणियों के बहुत ही महीन और मृदु आलोक में, मानो सारा कक्ष तैर रहा है।
ताजा कमलिनियों की राशि पर पट्टे महाराज के निष्कम्प चरणों में अचानक बेमालूम-सा गहरा दबाब अनुभव हुआ।
"ओ...यशस्वती, तुम हो !' "हौं नाथ, मैं ही हूँ। बहुत दिनों बाद श्रीमुख के दर्शन हुए !" ऋषभ चुप, स्थिर, रानी की उन्मीलित आँखों में छलकती अजुलि को मानो दर्पण हो रहे।
"क्या सोच रहे हैं, प्रम ?"
''नहीं, सोच कुछ नहीं रहा, यश। वैसे भी सोचता कब था। बस, करता था, या कुछ नहीं करता था। सोचना मुझे सदा अनावश्यक रहा। बह मेरा स्वभाव नहीं।"
"ओह, अपने अणु-अणु में जिसे युगों से बसाये रही, उसके स्वमाव को आज पहली बार जाना। अपूर्व है यह क्षण !..."
"मैं ही तुम्हें कितना जानता हूँ, यश ?'' "अपने जाने तो मैंने कुछ भी छुपाया नहीं, बचाकर नहीं रखा।" "काश, तुम भी अपने को पूरा जानती होती !"
"नहीं जानती हूँ, इसी से तो कहती हूँ, कि मुझे खोलो, मुझे आर-पार खोल दो। मेरे सूरज, मुडामें आर-पार आओ, ताकि तुम्हें जान सकूँ पूरा,
एक और नीतांजना : 3