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एक और नीलांजना आख्यान ऋषभदेव और अप्सरा नीलांजना का
सुना जाता है, अयोध्या शाश्वत नगरी है। काल के चक्रावर्तन में, अपने नियोजित समय पर वह प्रकट होती है, और अवधि पूरी होने पर फिर अन्तर्धान हो जाती है। हर भोग-युग की समाप्ति पर, कर्म-युग के आरम्भ में, वह नयी होकर अवतरित होती है। वह अ-योध्या है : किसी युद्ध और योद्धा से वह कभी जीती नहीं गयी। सदा हुँआरी रही। कर्म-भूमि के आदि ब्रह्मा की यह इच्छा-नगरी है। उनकी इच्छा की एक तरंग पर, रात के किसी अलक्ष्य क्षण में वह पृथ्वी पर उत्तर जाती है। सवेरे सूर्योदय में, अकस्मात नारंगी रत्नों की राशि से जैसे सारी पृथ्वी जगमगा उठती है।
वर्तमान काल-चक्र के अवसर्पिणी क्रम में भी वह अयोध्या लाखों वर्ष पहले, इसी तरह प्रकट हुई थी। इस युग के आदि विश्वकर्मा तीर्थंकर ऋषभदेव के अमोघ संकल्प की वह स्वयम्भुवा जावा धी।
उसी अयोध्या के सिंहासन पर सहस्रों वरस अपनी रची सृष्टि का सुखोपभोग कर, पहाराज ऋषभदेव ने एक दिन सहसा ही कुछ विचित्र उपरापता अनुभव की। उन्हें लगा कि समस्त लोक की रचना करके भी. उसका निधि भीग करके भी, वे तृप्त नहीं हो पाये हैं। भीतर की इस अतृप्ति का अन्त नहीं। अन्दर के एक ऐसे रिक्त के सामने वे आ खड़े हुए हैं, जो अनिर्वार है और असह्य है। अपनी विराट् रचना में आदि ब्रह्मा को अपने इस रिक्त की पूर्ति कहीं नहीं मिल रही।
यह अयोध्या का 'सर्वकामपूरन राजमहल हैं। समस्त पार्थिव कामनाओं
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