________________
और राज-दम्पतो एक साथ, योगी के चरणों में साष्टांग प्रणिपात में नामत हो गये। जाने कितने क्षणों बाद वे उठे, तो पाया कि चोगो वहाँ नहीं थे। चैत्य-कानन की वीथिका में एक अरूप आभा दूर-दूर चली जा रही थी।
प्रतिपदा का सुवर्णाभ चन्द्र-मण्डल, आज की सन्ध्या में चेली के वातायन पर अतर आया है।
"चेला, आज तुम्हें पहली बार पहचाना ?" "अपने देवता को, आज पहली बार मैं अन्तिम रूप से पा गयी।" "मुझे भीतर ले चलो, आत्मन् !"
"चलो मेरे नाथ, विपुलाचल के शिखर-देश पर, अनन्त शवन हमारी प्रतीक्षा में है...!"
....दिगन्तवाहिनी हवा में जाने कैसो केसर महक रही है।
(25 दिसम्बर, 1972)
स्वयनाथ : सर्वनाथ : 51