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गयी।..,अन्तर-मुहूर्त मात्र में अपने भीतर से भी भीतर के भीतर में मैं जाम उठा..."
"मैंने मन-ही-मन संकल्प किया : इस रात के बीतने तक, यदि मेरी वेदना दूर हो जाएगी, तो कल सबेरे में अभिनिष्क्रमण करके अनगारी प्रव्रज्या ग्रहण कर लूँगा।... ___“हे देवानुप्रिय, इस संकल्प के साथ ही मेरी पीड़ा, उत्तरते ज्यार की तरह धीरे-धीरे का दोही माली गयी।...लाल महर्त में मैंने अनुभव किंगा कि मेरी पीड़ा सर्वथा तिरोहित हो गयी है : मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया है। ...और सूर्य की पहली किरण फूटने के साथ ही, अपनी प्रिया और परिजनों के ऊन्दनों को पीठ देकर, मैं रजमहल से अभिनिष्क्रमण कर गया !..."
क्षण-भर को एक अफाट मौन में, सारा वन-प्रान्तर विश्रब्ध हो गया। तच श्रेणिकराज की चरम जिज्ञासा मखर हो उठी :
"फिर कहीं शरण मिली, आर्य ?"
"निनन्ध ज्ञातपुत्र के श्रीचरणों में जाकर मैं समर्पित हो गया। कैवल्य ज्योति का दर्पण सम्मुख था। उसमें अपना असली चेहरा पहली बार देखा। मैंने अपने को पहचान लिया ...मुझे शरण मिल गयी।"
"निग्रन्थ ज्ञातपुत्र के चरणों में ? "नहीं, अपने भीतर । अपने स्वरूप में !" "फिर क्या हुआ, योगिन् ?'
"मैं अन्तिम रूप से सनाथ हो गया। मैं स्वयंनाथ हो गया। और अपना नाथ होकर, मैं सर्व चराचर का नाथ हो गया।"
“सो कैसे, भगवन् ?'
"अव निखिल चराचर मेरे भीतर है, और मैं उसके भीतर हूँ। बाहर कुछ भी नहीं रहा। विरह सदा को मिट गया। पूर्ण मिलन हो गया।''
"मैं प्रतिबुद्ध हुआ, भगवन्, आपकी जय हो !' और अब तक मौन खड़ी मगध की राजेश्वरी एकाएक पुकार उठगे : 'आर्यावतं के बाल-योगीश्वर जयवन्त हों !'
50 : एक और नीलांजना