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और अपने को भी।"
"उस संक्रमण में क्या कमी रही, यशस्वती तुम्हारी कांख से जन्मजात योगी भरत जनमा ...फिर भी मेरा सूरज क्या तुम्हारी रक्त शिराओं के पार जा सका "
"कई बार लगा है, कि तुम्हारे वक्ष में निरी नग्न, आर-पार ज्वाला होकर रह गयी हूँ । पर अपनी अग्नि, अपने ही को असह्य हो गयी ।... तब क्यों मुझे अपने ही में छोड़ दिया, निराधार जलने को ?"
"वह अनिवार्य हैं, यश ! वह स्वयम्भू है। वह स्वभाव है। उसमें मेरा कर्तुत्व नहीं, मेरी विवशता भी नहीं। तुम्हारी भी नहीं बस वही तुम थीं...हो ।"
"इतनी निरालम्ब न करो, मेरे देवता! मुझे थामी, मैं गिर जाऊँगी।” "अब तक नहीं गिरीं, तो अब कैसे गिर जाओगी....?"
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" देख रही हूँ, भरमा रहे हो। नहीं, मेरे साथ अब और चौसर न खेलो तुम्हारे चक्रव्यूहों से मैं बहुत तंग आ गयी हूँ।...मुझे लो, और मत रहने
दो ।"
"तुम्हारे अतलान्तों के पार गया हूँ, फिर भी तुम्हें कहाँ ले पाया ? यह स्वभाव नहीं, यश, सो वह सम्भव नहीं ।"
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" आदि ब्रह्मा वृषभदेव के लिए क्या असम्भव है ! यह समस्त लोक तुम्हारी उँगलियों का खेल हैं, मेरे स्वामी ! तुम निखिल के स्रष्टा और निर्वाध भोक्ता हो। तुम और असम्भव ? कैसी अनहोनी बातें आज तुम्हें सूझ रही हैं !"
"खप्टा मैं नहीं, सृष्टि स्वयं अपनी स्रष्टा है। लोक मेरी उँगलियों का खेल नहीं, अपनी ही उँगलियों का खेल स्वयं आप हैं। मैं इस रहस्य को अब प्रतिक्षण साक्षात् कर रहा हूँ। इसी से अब लगता है कि..." "क्या लगता है...?"
“लगता है कि कुछ होनेवाला है....!"
"क्या होनेवाला है... क्या... क्या... बोलो न !... बहुत दिनों से देख रही
54 एक और नीलांजना