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गंगा-तटवर्ती चैत्व-उपवन की छत पर खड़े पाश्वंकुमार दूरान्तों में लीन होती लहरों पर खेलने चलं गटो है।
हवा में एकाएक महक उठी मानती-सी पगचाप, उन लहरों में उन्हें सुनाई पड़ी। कुमार ने अपनी आँखों का अनुसरण करती, दो घनी नीलमी आँखें देखीं। सहसा ही मुड़कर देखा, तो प्रतिच्छाया-सो प्रभावती पाप्त हो खड़ी थी।
"ओ...आओ देवी ! कुशस्थल की राजबाला को पावकुमार प्रणाम करता है।"
सुनकर, देश-काल में ठहरना कठिन हो गया उस सरला के लिए। ढलकी पलकों की लम्बी-लम्बी बरौनियों चित्रित-सी हो रहीं। और वह उन्हीं में सिमट रही।
"पारस प्रस्तुत है, कल्याणी, संकोच किस बात का ? क्या आज्ञा
"आदेश सुनने आयी हूँ।..लज्जित न करें, देव !!"
"सचमुच, परम सुन्दरी हो ! एक बार देखने की इच्छा थी। सारी रीति-नीति तोड़कर तुम चली आयीं ! कृतज्ञ हूँ।" ।
"रूप तो रज होना ही है एक दिन । इन श्रीचरणों की रज होकर वह सार्थक होना चाहता है।"
"जो रूप रज हो जाए, प्रभावती, उसे लेकर क्या करूँगा : मुझे तो लावण्य चाहिए, ऐसा कि जो अमृत हो जाए।...मर्त्य को पारस प्यार नहीं कर सकता !"
"नो, जैसी हूँ, प्रस्तुत हूँ, नहीं जानती कि क्या हूँ। अपनी अव कहाँ रही ! जिसकी हूँ, वह जो जी चाहे, मुझे बना ले।"
"सुन्दरियौँ तो बहुत देखीं, पारस ने। जाने कितने देश-देशान्तर भएका हूँ, मन की सुन्दरी की खोज में। पर्वत लाँघे, नदियों तैरी, समुद्र पार किये।
चूडान्त की प्रभा : 37