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"बेटे के पास आने में अनुमति कैसी माँ ?"
"केवल मेरे बेटे तो अब तुम नहीं रहे ! कलिंग-विजय के बाद, आज सारे आर्यवर्त की आँखें तुम पर लगी हैं। इन्हीं सबमें से एक मैं भी हूँ !" "सबका हूँ, इसी से तुम्हारा अधिकार कम नहीं हो गया, माँ ! अन्तिम न सही, हा अधिकार का तुम्हारा रहेगा।”
बेटे की इस गौरव नम्र भंगिमा की बलाएँ लेती-सी महारानी वामादेवी बोलीं :
"कुशस्थल का राजदूत टीका लेकर आया है। कल भोर की द्वाभावेला के मंगल- मुहूर्त में, तिलक धारण करोगे तुम !" "वह टीका किस बात का माँ ?"
" प्रभावती के साथ तुम्हारे वाग्दान का !"
"तो वाग्दान का टीका, राजदूत क्यों करेगा ?" चाहे तो, जो वरण करना चाहती है, वह आकर करे। राजदूत से मेरा क्या लेना-देना ?" "वह तो तेरी हो ही गयी, बेटा। यह तो एक रीति है राजकुलों की ।" "तुम तो जानती हो, माँ, रीति-नीति से तो पारस कभी चला नहीं। यह तो आत्मदान का निर्णय है, इसमें रीति कैसी ?"
" वाग्दान हो ले, फिर आत्मदान तो तुम दोनों के बीच की बात है।" "तो हमारे बीच की जो बात है, वह तो हो ही चुकी। बाहरी वाग्दान अब अनावश्यक है। आत्पदान का तिलक तो प्रभावती ही कर सकती है, राजदूत से कह देना।"
"सब बातों में तेरी मनमानी से मैं तो हार गयी, पारस अच्छा, सच बताना, वही न कि एक बार तू उसे देख लेना चाहता है !"
"अब देखने की दरार कहाँ बची माँ ! अब तो बस अपने को दे देना है। जो लेना चाहे, वह आये। पारस प्रस्तुत है ।"
और पार्श्वकुमार एक स्थिर दृष्टि माँ पर डालकर, उनके चरण छूकर, चुपचाप अपने अन्तःकक्ष में चले गये।
36 एक और नीलांजना