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देखते रह गये। एक उत्तुंग अश्व पर, उदीयमान सूर्य-सा कोमल, अरुण, तेजोमान एक युवा आरूढ़ है। नग्न और प्रभास्वर है उसका वक्ष-मण्डल ।
और अपनो उल्लम्ब दोनों वाहा फैलाए, वह जैसे उदयाचल पर धीर गति से अधिकाधिक उद्भासित होता जा रहा है। उसके अपूर्व सुन्दर मुख मण्डल पर, मात्र प्यार की एक मुस्कान फैलती चली जा रही है।...
सहस्र-सहस्र सैन्चों के शस्त्र स्तम्भित हो ताकते रह गये।..और अचानक दोखा, कि यवनेश्वर का प्रचण्ड शिरस्त्राण-मण्डित माथा, उस युवा वक्ष के अगाध मार्दव में डूब गया है। दिखाई पड़ रही हैं केवल, दो सुन्दर, सुगोल, कान्तिमान, गम्फित भुजाएँ. समचे यवन राऊ. को आवेष्टित किये
___...कुशस्थल-दुर्ग के सर्वोच्च वातायन से झाँकती, दो कृष्णसार आँखें, आँसुओं में दलककर, भीतर खुल गर्यो । बाहर का देखना सदा को समाप्त हो गया। भीतर के देखने का अन्त ही नहीं है।...
आत्म-विभोर होकर बोल उठे यवनेश्वर :
"पार्श्वकुमार, प्रभावती को नहीं, तुम्हें पाना चाहता हूँ। पा गया हूँ, फिर भी दूर क्यों लगते हो ?...कलिंग के अन्तःपुरों को क्या उत्तर दूँगा ? ....चलो, वे देखें कि तुम्हें जीत लाया हूँ, जगत् की तमाम प्रभावतियों के स्वामी को 1..." ___"कलिंगेश्वरी से कह दें, कि उनका बेटा कभी निश्चय ही उनके पास आएगा। पारस्य देश की सौ-सौ सुन्दरियाँ उसकी माँ हो गयौं । पारस धन्य हो गया ?"
और ईषत् झुककर, यवनराज के भाल पर एक चुम्बन अंकित कर, महाकाल' के अश्वारोहो पाश्चंकुमार, हवाओं में अन्तर्धान हो गये।
"आ सकती हूँ, पारस ?"
चूडान्त की प्रभा : 35