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का।" . . . सुन कानप,
प्र सार नहीं की है। और मैं उसे लेकर रहूँगा !"
"यह किसकी है, यह वह स्वयं जाने। आपको हैं, तो आपको मिलेगी हो। पर देख रहा हूँ, उसे लेना आपके बस का नहीं है। चाहें तो मेरी मदद लें । मैं ले चलें आपको इसके पास। बों आपका रास्ता सरल हो जाएगा।"
"मतलब...?"
"यही कि आपकी है वह, तो आपको मिल जाए। मैं आपकी हर इच्छा पूरी करने आया हूँ।
"तो तुम उसे नहीं चाहते "
"मेरा चाहना अर्थ नहीं रखता, यवनेश्वर । निर्णायक प्रभावती की चाह है। चलकर उसका निर्णय जान लें।"
"बह मेरे लिए नगण्य हैं। मैं जो चाहूँगा, उसे अपने बाहुबल से ले लूँगा !"
"अपहरण...?" "बाहुबल से हरण होता है, वरण होता है, अपहरण नहीं !'' "तो दिखाए अपना बाहुबल, पारस तैयार है !" "मेरी राह से हट जाओ, काश्यप !.."
"देव, इनुल, मनुज, कोई सत्ता पारस को अपनी जगह से हटा नहीं सकती । कलिंग्नाथ का बाहुबल देखने को उत्सुक हैं आज पारस । प्रणत हूँ, और प्रस्तुत हूँ।"
...और अगले ही क्षण यवन के हाध का शंख छीनकर, पाश्वंकमार ने बुद्ध-घोषणा कर दी। चवन-सेनाएँ उमड़-घुमड़कर टूट पड़ीं।...
...कुशस्थल-दुर्ग के सर्वोच्च प्रासाद-वाताबन की जाली से झांकती दो आँखें, भव और सन्त्रास से व्याकुल हो उठीं।
और दानबी गर्जन के साथ हुमकले यवन-सैन्य ने पाया, कि सामने प्रहार झेलने और लौटाने को कोई नहीं है। वे सब दृष्टिशेष होकर मात्र
34 : एक और नीलांजना