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किन्तु पार्थिव में वह प्रिया कहीं दीखी नहीं 1 पर अनन्य है तुम्हारी रूपश्री !"
"स्वामी की आँखें जो देखें, कम हैं। देह धरकर में कृतार्थ हुई। " "लेकिन, सुनो देवी, मैं ऐसो सुन्दरी चाहता हूँ, जो जरा और मरण का ग्रास न हो सके ! वही हो क्या तुम ?"
"मैं क्या जानूँ. स्वामी जानें, कि उनकी प्रभा कौन है, क्या है ?" "सुनो प्रभावती, वचन दो कि वृद्धा नहीं होओगी, मरोगी नहीं।" "जरा और मरण से परे होने का दावा कैसे कर सकती हूँ। मैं तो एक साधारण लड़को हूँ ।"
"साधारण लड़की से पारस का काम नहीं चलेगा, प्रभावती ।" "जरा और मरण से परे की सुन्दरी, मैंने तो सुनो नहीं आज तक । वैसे मेरा ज्ञान ही कितना है ? आप ज्ञानी हैं, आप जानें, वह कौन है, कहाँ हैं !....”
"सम्मेद शिखर का नाम सुना है, देवी ?"
"कभी सुना भी हो...तो अब कुछ याद नहीं रहा। बहुत दिन हो गये, मैंने तो एक के सिवाय कुछ देखा-सुना ही नहीं। उससे बाहर का भूगोल अब भूल ही गयी हूँ।"
"बड़ी सरला हो। इसी से मेरी कठिनाई बढ़ गया है। मुझे समझने की कोशिश करो, प्रभावती ।"
"समुद्र में डूब सकती हूँ, उसे समझना मेरे वश का नहीं !" "तो डूब जाओ और सुनो समुद्र को समझ में आ जाएगा । " 'बोलो नाथ...!"
"देखो प्रभावती, पारस की हठ लोक विख्यात है। आर्यावर्त के सारे राजकुल और जनपद उससे परेशान हैं। जो चाहता है, उसे वह पाकर रहता है । उसी हठीले से तुम्हारा पाला पड़ा है। तुमने बड़े असम्भव पुरुष को चुना है, कल्याणी । चाहो तो मेरी हठ पूरी करो। जरा-मरणातीत मेरी होकर रह सको....तो पारस प्रस्तुत
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38 एक और नीलांजना