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प्रभावती एकनिष्ट भाव से पाश्चकुमार को समर्पित हो बैंठी है। ईघ्यां और रोष से भभककार उसने अचानक कुशस्थल पर आक्रमण कर लिया है। उसकी सेनाओं ने कुशस्थल के चारों और घेरा डाल दिया है और मोर पर वह स्वयं आ डटा है। मैं दुर्ग के गुप्त द्वार से किसी तरह छुपे वेश में निकल आया हूँ। काश्यपकुल की भावी राजबघू परित्राण की प्रतीक्षा में है। और काशी के मालिक प्रसेनजित् की मांदा, काश्यपेन्द्र की मर्यादा है। उचित आदेश दें, महाराज, और हमारी तथा अपनी लाज रखें।"
सुनकर काशीराज अश्वसेन की भृकुटियाँ तन गयीं। अविकल्प राजाज्ञा सुनाई पड़ी: __ "सेनापत्ति जयदेव, इसी क्षण कोटिभट सैन्य लेकर कुशस्थल को प्रस्थान करो। हमारे सीमान्तों पर, रण का डंका बजाकर प्रजाओं को सावधान कर दो !" __ और धोड़ी ही देर में युद्ध के दुन्दुभि-घोषों, तुहियों और शंखनादों से वाराणसी थर्रा उठी। सीमान्तों पर सजते सैन्थों की पताकाओं और शस्त्रास्त्रों की चमचमाहट से आकाश चमत्कृत हो उठा । महाराज अश्वसेन, घुटने के बल सिंहमुद्रा में कटिवद्ध हो बेटे । राजदरबार में खलबली मच गयी।
...कि अचानक केशरिया उत्तरीय धारण किये, सर्पो-से अवहेलित कुन्तल लहराते, दूर से पार्श्वकुमार पहली धार काशी की राजसभा में आते दिखाई पड़े। निश्चिन्त, मुसकाती मुख-मुद्रा और युवा शार्दूल-जैसी सुधीर पगचाप। विस्मित, विमुग्ध, सब देखते रह गये। स्तब्ध। ___"आज्ञा हो देव, रण-वाद्य बन्द हो जाएँ । सेनाएँ और शस्त्र सैन्यागार में लौट जाएँ।"
''समझा नहीं, कुपार..." ''संकट-निवारण को पाश्वकुमार प्रस्तुत है।" "लेकिन सैन्य और शस्त्र बिना ?...क्या करना चाहते हो ?" 'पारस स्वयं अपना सैन्य और अपना शस्त्र है। क्षमा करें महाराज,
चूड़ान्त को प्रभा : 31