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"अच्छा माँ, आज्ञा लेता हूँ ।" "तो फिर कब मिलेगा ?" "जब चाहोगी.... |"
और माँ के पैर छूकर विपल मात्र में ही, पार्श्वकुमार अदृश्य हो गये। मानो हवा, इस खिड़की से आयी उस खिड़की से निकल गयी ।
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काश्यपवंशीय काशीराज अश्वसेन, अपनी प्रातःकालीन राजसमा में, अपने गंगोत्रीनुमा सिंहासन पर सुखासीन हैं। प्राकृतिक हीरक चट्टान में उत्कीर्ण उसकी सहस्र- पहलू, आभा में, विशाल पन्ने के छ की प्रतिच्छाया पड़ रही है । हिमालय की हिमानियों में जैसे देवदारु वृक्ष झलमला रहे हों। वृन्दवाद्यों के साथ गन्धर्व मंगल प्रभातियाँ गा रहे हैं। अचानक प्रतिहारी आकर नमित हुई ।
"परम भट्टारक काश्यपेन्द्र की जय हो ! कुशस्थल के मन्त्रीकुमार अजितसेन, महाराज से भेंट करने को द्वार पर प्रत्याशी हैं। "
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"उनका स्वागत है, प्रतिहारी । सम्मानपूर्वक उन्हें लिवा लाओ।" अस्त-व्यस्त, परेशान, पसीने से तर-बतर धूलि - धूसरित अजितसेन ने आकर अभिवादन किया और फूलती साँस में वे एकबारगी ही कह गये : "कुशस्थल संकट में हैं, आर्य महाराज प्रसेनजित की इकलौती राज- दुहिता ने जब से बन-क्रीड़ा में, किन्नरियों के मुख से वाराणसी के युवराज पार्श्वकुमार का जयगान सुना है, वे मन-ही-मन कुमार का वरण कर चुकी हैं। कलिंग देशाधिपति यवनराज ने भी उसी बन-विहार में, स्म्यकचन में आखेट करते हुए प्रभावती की एक झलक देखी थी। उसी क्षण से यवन पागल हो गया। अपना राजदूत भेजकर उसने महाराज प्रसेनजित् से प्रभावती के पाणिग्रहण की याचना की। प्रभावती मौन रही और मुकर गयी। उधर कलिंगराज के कानों तक यह बात भी पहुँची कि
अ : एक और नीलांन्दना