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"मतलब..."
"यही कि सब मेरे अन्तःपुर में रानियाँ बनकर बैठी हैं ! किन्तु कम पड़ रही हैं ! मन अभी भरा नहीं, पौ...!''
"और प्रभावती से भी मन भरेगा या नहीं, सो क्या ठीक है !"
'अब देखो माँ, मन की तो मन जाने। और ठीक वहीं किस बात का है ! और मन का तो स्वभाव ही नहीं कि ठीक हो, भरे...!"
"तब तो...कुछ भी ठीक नहीं तेरा, पारस ?"
"सच तो यही है, मौं। लेकिन कहला दो प्रभावती से, कि चाहे तो ठीक कर लें । मुझे भी, अपने को भी। तब बात बन जाएगी।"
'बेचारी लड़की ! तुझे जनकर भी तेरे भेद मैं नहीं समझ पा रही, तो वह क्या समझेगी ! आपा ही उसने नहीं रखा, समझेगी काहे से ?" .. "आप मासतयुद्ध ही वापसी है बह, नो गाझने को क्या बाकी रह जाता है। सब तो मेरा भेद, वह मुझसे अधिक जान गयी है।"
"विनोद छोड़, लालू, यह बता, तू तैयार है न ?" "पारस कब तैयार नहीं है ! अपनी बात प्रभारती जाने।' "जानने को क्या रहा, बेटा, वह तो तेरी होकर रह गयी है !" "आभारी हूँ उनका।" "आभार नहीं, उसे भर्तार चाहिए !" "तथास्तु !...उन्हें अपना मनचाहा भर्तार मिले !" "वाराणसी का राजपुत्र पार्श्वकुमार, और कोई नहीं !"
"जो उन्हें भर सके, दह उनका सच्चा भार ! वह पारस होगा, तो वह भी मिल ही जाएगा !"
"तो आज ही अपना राजदूत कुमारथाद गडे देती हूँ, सन्देशा लेकर।"
"अपना राजदूत तो मैं ही हूँ, माँ ! मेरे और उसके बीच राजदूत कैसा ? सन्देशा पहुँचा दिया, मैंने ही, चौकस !..."
महारानी इस अन्तहीन बेटे को, बस, देखती रह गयीं । शब्दों से परे है यह।
चूडान्त की प्रभा : 29