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वन-वन में उसका हो हरितामा छायाँ हैं : स्वगों को सुन्दरियाँ उसकी परछाहीं हैं। अचल मानुषोत्तर यह घरती पर चलता है : सागर स्वयम्भू-रमण चरणों पर बिछलता है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष को अँगुलियों खिलाता हैं : एक बार देखे जो, आपा भूल जाता है। काशी का राजपत्र पारस अनहोना है :
पृथिवी पर उसको रे नहीं कहीं तुलना है। "और पारस, प्रभावती ने जब से यह गीत सुना है, वह आपे में नहीं रही है। कहती है, व्याहूँगी तो पार्श्वकुमार को, नहीं तो कुंवारी ही रहूँगी ! ...अब बोल, क्या कहता है तू, बेटा ?"
"ओ..., किन्नरियों का गीत सुनकर तो मैं भी आपा खो बैठा, माँ। ऐसा कोई पारस कहीं हो, तो मैं स्वयं प्रभावती बनकर उसे ब्याहना चाहूँगा, मौं। कहला दो प्रभावती से, कि तैयार है पारस ! वह '' हो जाए, और 'मैं' वह हो जाऊँ ! सौदा महँगा नहीं पड़ेगा। तब ब्याह पक्का
__सुनकर महारानी वामादेवी के हँस-हँसकर पेट में बल पड़ गये, और आँखें पानी-पानी हो गयीं। फिर बहुत ही उमगकर बोली :
"तेरे लीला-बिनोद का अन्त नहीं, बेटा। नटखट कहीं का ! तो भेज दूँ सन्देशा कुशस्थल, कि पारस राजी है विवाह को ?"
विवाह तो हो चुका, माँ ! उधर प्रभावती ने आपा खोया, इधर पारस ने। अब होने को क्या बाकी है ?"
"बड़ी भागवन्ती है, कुशस्थल की राजकन्या। वरना, आज तक तो तूने किसी को 'हाँ' नहीं कहा ! जाने कितने देशों की कन्याओं के चित्रपट आये, सबको गोल कर, उनसे खेलता रहा। जाने कहाँ फेंक दिये होंगे तूने, जाने कितनी सुन्दरियों के चित्र !"
"अरे फेंके नहीं मौं, सब टाँग दिये हैं, अलग-अलग कमरों में !"
2B : एक और नीलांजना