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“मैं नहीं भागता माँ सच पूछो, तो वह बेचारा वैभव भी नहीं भागता । तुम सब इसके पीछे पड़े हो, कि वह मुझे पकड़े और अपने को भुगवावे : सां यह भागा फिरता है । "
" ओर तुम पकड़ में नहीं आते ?"
" पकड़ में आऊँ, तो इसे भोग कैसे सकता हूँ । भोग तो आनन्द के लिए है, मुक्ति के लिए हैं। पकड़ तो कैद है। कैदी कैसे भोग सकता है : मुक्त ही भोग सकता है। भोक्ता और भोग्य, दोनों मुक्त रहें, तभी तो भोग सम्भव है। विलास और उल्लास तभी सम्भव है, कि हम स्वतन्त्र हों । स्वच्छन्द हो। हम अपने छन्द में रहें, भोग्य अपने छन्द में रहे। हर वस्तु का अपना एक छन्द होता है । स्वतन्त्र और स्वाभाविक ।"
“अच्छा, पारस, मैं फिर हारी तुमसे बड़े अनहोने हो, बेटा !" माँ के आँचल में दूध उमड़ आया। जी में आया कि उठकर, इस लाड़ले को सपूचा छाती में समा ले। पर इस सामने बैठे कोख के जाये को वह देखती ही रह गयी। हिम्मत न हो सकी। क्षितिज को क्या पकड़ा जा सकता है !... वातावरण में निस्तब्धता भर आयी । महारानी वामादेवी को उसमें रहना असह्य लगा । निष्कृति पाने को उन्होंने बात बदली : "देख तो पारस, आर्यावर्त के जनपदों में आजकल एक विचित्र कहानी चल रही है !"
"सुनाओ माँ, कहानी सुनने हीं तो आया हूँ, तुम्हारे पास तुमसे सुनो कहानियाँ ही तो मुझे जाने कहाँ कहाँ ले जाती हैं। अच्छा, सुनाओ नयो कहानी ।"
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"कुशस्थल की राजकन्या प्रभावती एक दिन अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा को गयी थी। रम्यकवन में उसने कुछ किन्नरियों को गाते काशी का राजपुत्र पारस अनहोना है। पृथिवी पर उसकी रे नहीं कहीं तुलना है ! नवी धान्य- आभा-सा हरियाला पीला है : उसकी हर चितवन में अखिल की लीला है
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सुना
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चूड़ान्त की प्रभा: 27